भारत में प्रौढ़ शिक्षा का विकास
विशाल कुमार गुप्ता,पीएचडी शोधार्थी,फैकल्टी ऑफ़ सोशल साइंस,डीयू
“प्रौढ़ शिक्षा न तो साक्षरता से शुरु होती है और न ही साक्षरता पर समाप्त। साक्षर एड़ी-चोटी का पसीना एक करके जिन्दगी जीने वाली निराशोन्मत जनता पर साक्षरता कतई थोपी नहीं जा सकतीथके-मांदे निसंग व्यक्ति के मन में साक्षर होने की असली इच्छा नहीं होगी। साक्षरता उन लोगों के आंतरिक अपेक्षा के अनुरूप उभरनी चाहिए जिनके पास खाने के लिए न्यूनतम भोजन और कार्य करने की सामान्य ऊर्जा हो। इस तरह की जनता को साक्षर बनाने के लिए आवश्यक है कि साक्षरता कार्यक्रम जीवन केन्द्रीत हो।" -------------------------------- महात्मा गाँधी
सियासी तापमान/दिल्लीः विश्व के विभिन्न देशों में प्रौढ़ शिक्षा की परंपरा उतनी ही प्राचीन है, जितनी कि उनकी सभ्यता और संस्कृति। लेकिन एक अकादमिक विषय के रूप में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रौढ़ शिक्षा का सूत्रपात हुआ जिसे 20वीं सदी में विश्वव्यापी मान्यता प्राप्त हुई। काफी लम्बे समय तक प्रौढ़ शिक्षा को पूरक या उपचारात्मक शिक्षा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है लेकिन अब सतत शिक्षा और जीवनव्यापी शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में प्रौढ़ शिक्षा स्वयं में एक स्वतंत्र विद्या बन गई है। वर्तमान में प्रौढ़ शिक्षा का स्वरूप औपचारिक और औपचारिकेत्तर दोनों हो सकता है। प्रौढ़ शिक्षा को मात्र साक्षरता आंदोलन नहीं कहा जा सकता है बल्कि इसके अंतर्गत व्यावसायिक व तकनीकी प्रशिक्षण, वैज्ञानिक ज्ञान के साथ-साथ समाज में स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के विस्तार को गति प्रदान की जाती है।
यह प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम का प्रतीक चिन्ह है। इस चिन्ह में एक व्यक्ति अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठाए हैं। उसके चारों ओर एक गोला बना है, जो उसके आस-पास के वातावरण की ओर संकेत करता है। चिन्ह में एक छोटा गोला भी है, जो व्यक्ति के सिर का रूप है। इस पूरे चिन्ह का अर्थ यह है कि व्यक्ति अपनी और अपने समाज की आकांक्षाओं के प्रति जागरूक है तथा समग्र विकास हेतु आजीवन शिक्षा पाने के लिए तत्पर है। विश्व के प्रत्येक देश और समुदाय में प्रौढ़ शिक्षा की एक लंबी परंपरा रही हैभारत इसका अपवाद नहीं है। समाज का कोई भी वर्ग इस परंपरा से अछूता नहीं रहा है। भारत में प्रौढ़ शिक्षा की औपचारिक शुरुआत औपनिवेशिक काल में हुईभारत में भी प्रौढ़ शिक्षा की अवधारणा एवं विकास का स्वरूप परिवर्तित होता रहा है, जिसे Dr S.Y. Shah ने अपनी पुस्तक 'AN ENCYCLOPEDIA OF INDIAN ADULT EDUCATION' में निम्न चार अवस्थाओं में प्रस्तुत किया है
बुनियादी साक्षरता
भारत में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात वुड घोषणा पत्र 1854 से माना जाता हैयही वह समय था जब भारत में प्रौढ़ साक्षरता तथा प्राथमिक शिक्षा के महत्त्व को स्वीकारा जाने लगा था। इस कार्य में जेल स्कूल, रात्रि स्कूल, पुस्तकालय आंदोलन, गाँधी जी के रचनात्मक कार्यों सहित अनेक सुधार आंदोलनों एवं कार्यक्रमों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। मिशनरी संगठनों के साथ-साथ भारतीय समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा स्थापित सामाजिक-धार्मिक संगठनों ने प्रौढ़ शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन संगठनों का एक मुख्य लक्ष्य जन सामान्य में रुढ़ियों, जात-पात, छूआछूत, सामाजिक कुप्रथाओं तथा अंधविश्वासों के प्रति जनता में तार्किक चेतना पैदा करना था। सन् 1851 में आगरा जेल के अधीक्षक डॉ. वाकर ने कैदियों में सकारात्मक सोच पैदा करने के साथ-साथ उन्हें अपराध मुक्ती के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से कक्षाएँ संचालित की जिसकी सफलता से प्रेरित होकर अन्य प्रांतों में भी जेल स्कूल खोले गए। बीसवीं शताब्दी में उभरे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधार आंदोलन, गाँधी, पटेल, नेहरु इत्यादि जैसे बड़े नेताओं की भूमिका, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध जैसी घटनाओं का प्रभाव यहाँ के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक जीवन पर भी पड़ा। शिक्षा के प्रति लोगों में एक नई चेतना जागृत हुईभावनकोर, बड़ोदा, कोचीन एवं मैसूर आदि रियासतों के शासकों ने प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम संचालित किए। गाँधी जी के रचनात्मक प्रयास, टैगोर द्वारा स्थापित श्रीनिकेतन, ग्रामीण पुस्तकालयों की स्थापना, भारतीय प्रेस का विकास, वर्नाक्यूलर साहित्य का सृजन, संचार माध्यमों का विकास, संग्रहालयों की स्थापना, एवं स्वैच्छिक संगठनों का गठन आदि अन्य महत्वपूर्ण कदम थे जिससे प्रौढ़ वर्ग में शिक्षा का संचार हो सकारायल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर (1928) तथा हरतोग कमेटी (1929 ) ने देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के उद्देश्य से प्रौढ़ शिक्षा पर जोर दिया। प्रो. एन.जी. रंगा द्वारा रामानायडु प्रौढ़ शिक्षा संस्थान, शफीकुर रहमान किदवई द्वारा इदारा-ओ-तालीम-ओ तरक्की की स्थापना तथा भारतीय प्रौढ़ शिक्षा संघ की दिल्ली में स्थापना से प्रौढ़ शिक्षा आंदोलन को बल मिला। परंतु द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ होने तथा कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के त्याग पत्र देने से देश में प्रौढ़ शिक्षा आंदोलन को बड़ा आघात लगा। लेकिन देश में प्रौढ़ शिक्षा के महत्त्व को सरकार ने गहराई से महसूस किया। यही कारण है कि केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद (CABE) द्वारा 1939 में पहली बार प्रौढ़ शिक्षा समिति का गठन किया गया। इस समिति की अनुसंशाओं को परिषद ने स्वीकार कर लियायुद्धोत्तर शैक्षिक विकास की समीक्षा हेतु गठित सार्जेन्ट कमेटी (1944) ने प्रौढ़ शिक्षा के दायित्व को वहन करने हेतु सरकार से आग्रह किया था। लेकिन अनेक कारणों से ब्रिटिश सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। ब्रिटिश शासन के अंत तक देश में प्रौढ़ शिक्षा के विकास की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो पाया
नागरिक साक्षरता
शिक्षा संबंधित कार्यक्रमों में फोर्ड फाउंडेशन द्वारा अनुदान प्रदान किया गया। देश में समाज शिक्षा के क्रियान्वयन हेतु साक्षरता निकेतन लखनऊ (1953), नेशनल फंडामेंटल एजुकेशन सेन्टर, नई दिल्ली (1956), केन्द्रीय श्रमिक शिक्षा परिषद (1957) तथा नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली जैसे राष्ट्रीय स्तर की संस्थाएँ गठित की गयी। प्रथम पंचवर्षीय योजना में समाज शिक्षा के क्रियान्वयन हेतु 5 करोड़ की राशि का प्रावधान थासामाज शिक्षा के क्रियान्वयन की दृष्टि से 1963 में एम. एस. मेहता समिति गठित की गई, जिसके अंतर्गत इसे व्यापक आधार प्रदान करने पर बल दिया गया। समाज शिक्षा अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर पाई। जिसके कई कारण थे। जैसे---
• समाज शिक्षा साहित्य, पर्याप्त विशेषज्ञों एवं कार्यकत्ताओं का अभाव
• राज्य सरकारों के पास आर्थिक संसाधनों एवं मार्गदर्शन की कमी।
• केन्द्र-राज्य के बीच सामंजस्य का अभाव
• सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत समाज शिक्षा पर अन्य कार्यक्रमों की अपेक्षा कम ध्यान देना इत्यादि
कार्यात्मक साक्षरता
राज संस्थाओं की असफलता के कारणों में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश जनसंख्या में कार्यात्मक साक्षरता का अभाव एक था।" कोठारी शिक्षा आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय विकास के संदर्भ में कार्यात्मक साक्षरता और प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार हेतु ठोस कदम उठाने की चर्चा कीभारत में कार्यात्मक साक्षरता के विस्तार के दृष्टि से 1968 में यूनेस्को के तत्वाधान में एक्सपेरीमेंटल वर्ल्ड लिटरेसी प्रोग्राम के अंतर्गत कृषक प्रशिक्षण एवं कार्यात्मक साक्षरता परियोनाएँ प्रारंभ की गयी। किन्तु संसाधनों के अभाव में इस कार्यक्रम को पूरे देश में संचालित नहीं किया जा सकाश्रमिकों की शिक्षा के लिए श्रमिक विद्यापीठ खोले गएइस संदर्भ में कृषि विज्ञान केन्द्र, नेहरु युवक केन्द्र तथा दूरदर्शन के माध्यम से कार्यात्मक साक्षरता का विस्तार किया गया। राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा परिषद तथा राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय की स्थापना से प्रौढ़ शिक्षा के विकास को संस्थात्मक आधार प्राप्त हुआ। प्रौढ़ शिक्षा का यह तीसरा चरण भी अपने क्रम के उपरोक्त दोनों चरणों के समान ही अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में पूर्णता सफल नहीं हो पाया जिसके पीछे मुख्य कारण कृषि, सूचना एवं प्रसारण तथा शिक्षा विभागों में सामंजस्य का अभाव था। शाह द्वारा वर्णित प्रौढ़ शिक्षा के तीसरे चरण को कार्यात्मक शिक्षा के रूप में परिभाषित किया गया है। योजना आयोग के तत्त्वाधान में जून, 1965 में राज्य शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि-"विकास के कई कार्यक्रमों जैसे कि-कृषि उत्पादन, सहकारिता, परिवार नियोजन, पंचायती
विकासात्मक साक्षरता
गयाइसमें स्वयं सेवक छात्र/छात्राएँ ईच वन : टीच वन (E.0.T.0.) के रूप में कार्य कर सकते थेइसी श्रृंखला में भारत सरकार द्वारा निरक्षरता उन्मूलन के उद्देश्य हेतु राष्ट्रीय साक्षरता मिशन (NLM) 5 मई, 1988 को आरंभ किया गया। इसका लक्ष्य 1995 तक देश के 15-35 आयु वर्ग के 8 करोड़ प्रौढ़ों को कार्यात्मक साक्षरता प्रदान करना था। ग्रामीण कार्यात्मक साक्षरता परियोजना एवं राज्य प्रौढ़ शिक्षा परियोजनाओं के माध्यम से सरकारी तथा गैर-सरकारी अभिकरणों ने मिलकर संयुक्त रूप से निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्य कियाकेरल राज्य ने एक विकल्प के रूप में अर्नाकुलम जिले में जनवरी 1989 में सम्पूर्ण साक्षरता अभियान (TLC) प्रारंभ किया और फरवरी, 1990 तक पूरे जिले को साक्षर बना दिया। संपूर्ण साक्षरता अभियान के अंतर्गत 15-35 आयु वर्ग के निरक्षरों को साक्षर करने के साथ-साथ प्राथमिक स्कूलों (6-14 वर्ष के बच्चों) में न जाने वाले बच्चों, ड्रॉप आउट, व व्यस्क निरक्षरों की भी शिक्षा पर विशेष बल दिया गया हैइस प्रकार यह कहा जा सकता है कि निरक्षरता-उन्मूलन के लिए किए जा रहे प्रयासों, कार्यक्रमों के मूल्यांकन से यह ज्ञात होता है कि भारत का एक खास समय के अंदर साक्षर होना असंभव है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अन्य उपयुक्त विकल्पों की खोज सतत् जारी रही और आज भी जारी हैइस लेख के अंत में मैं भविष्य में प्रौढ़ शिक्षा से संबंधित बनने वाले कार्यक्रमों और योजनाओं के संदर्भ में एक सुझाव देना चाहुँगा कि भारतीय प्रौढ़ शिक्षा की परंपरा प्रणाली में सैकड़ों वर्षों का समावेश रहा है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकताहमें इस ज्ञान को वर्तमान प्रौढ़ शिक्षा की विषय वस्तु के रूप में और ज्यादा समृद्ध करने की जरूरत है। भारत में आज भी बड़ी संख्या में लोगों के लिए अस्तित्व का संघर्ष शिक्षा से कहीं ज्यादा प्राथमिक है। इसलिए प्रौढ़ शिक्षा को साक्षरता के संकीर्ण दायरे से बाहर निकाल कर इसे विस्तार प्रदान करते हुए इसका नियोजन व्यापक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संदर्भ में किये जाने की आवश्यकता है। जिसके अंतर्गत आपसी भाई-चारा और परस्पर विकास का मूल मंत्र समाहित हो। भारत में प्रौढ़ शिक्षा के इस चौथे चरण में सन् 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी के सत्ता में आने के साथ ही इस क्षेत्र से संबंधित एक नया दृष्टिकोण सामने आता है। सरकार ने गरीबी और निरक्षरता उन्मूलन पर बल देते हुए राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम (NAEP) तैयार किया एवं 2 अक्टूबर, 1978 से इसको राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गयाइस कार्यक्रम के अंतर्गत साक्षरता के साथ-साथ उत्तर साक्षरता तथा अनुवर्ती क्रियाओं के माध्यम से कार्यात्मक तथा समाज शिक्षा के तत्वों का समावेश किया गया। राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत ग्रामीण क्रियात्मक साक्षरता परियोजनाएँ (RFLPs) तथा राज्य प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम ( SAEPS) संचालित किए गए। राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के क्रियान्वयन में विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों को सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआविश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 1977 में अपनी नीति कथन में विस्तार को उच्च शिक्षा के तीसरे एवं महत्त्वपूर्ण आयाम के रूप में शिक्षण एवं शोध के बराबर स्थान प्रदान किया गया। परिणामतः अधिकत्तर विश्वविद्यालयों में प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं विस्तार विभागों द्वारा प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों का संचालन किया गयाभारत में व्याप्त गरीबी और निरक्षरता की समस्या को देखते हुए छात्र-छात्राओं के आलावा अन्य युवकों को साक्षरता कार्यक्रमों से जोड़ने का फैसला किया गया और 1 मई, 1986 में जन कार्यात्मक साक्षरता कार्यक्रम (MPFL) प्रारंभ किया गयाइस कार्यक्रम में नेहरू युवा केन्द्रों तथा स्वैच्छिक संगठनों को भी शामिल किया। परंपरा प्रणाली में सैकड़ों वर्षों का समावेश रहा है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकताहमें इस ज्ञान को वर्तमान प्रौढ़ शिक्षा की विषय वस्तु के रूप में और ज्यादा समृद्ध करने की जरूरत है। भारत में आज भी बड़ी संख्या में लोगों के लिए अस्तित्व का संघर्ष शिक्षा से कहीं ज्यादा प्राथमिक है। इसलिए प्रौढ़ शिक्षा को साक्षरता के संकीर्ण दायरे से बाहर निकाल कर इसे विस्तार प्रदान करते हुए इसका नियोजन व्यापक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संदर्भ में किये जाने की आवश्यकता है। जिसके अंतर्गत आपसी भाई-चारा और परस्पर विकास का मूल मंत्र समाहित हो।(लेखक फैकल्टी ऑफ़ सोशल साइंस,दिल्ली यूनिवर्सिटी में पी एच डी शोधार्थी है और 'सियासी तापमान' मासिक पत्रिका के कंट्रिब्यूटिंग एडिटर भी हैं। ये लेखक के निजी एवं स्वतंत्र विचार है)