मीडिया में अस्मिताओं के प्रश्न
डॉ. हंसराज 'सुमन',एसोसिएट प्रोफेसर,हिंदी विभाग, श्रीऔरविन्दो कॉलेज,डीयू
ब्यूरोक्रेसी टाइम्स/सियासी तापमान(दिल्ली):भारतीय मीडिया में विभिन्न वर्गों, जातियों, सम्प्रदायों एवं लैंगिक भेदभाव का रूप अक्सर देखने को मिलता है। यह मीडिया उच्च जातियों का पालित पोषित संस्थान है। इसमें अन्य लोगों की भागीदारी जरूरत के हिसाब से ही हो पाती है। यहां पूर्णत: व्यक्तिगत भागीदारी होती है। इसका कोई वर्गीय आधार नहीं होता, न ही इससे हम किसी बड़े समूह की अस्मिता का नाम जोड़ सकते हैं। अतः मीडिया में विभिन्न अस्मिताओं का प्रश्न बराबर बना रहा हैपिछले कुछ वर्षों से मीडिया में दलित अस्मिताओं के प्रश्नों को लेकर काफी सवाल खड़े किए गए। लम्बे समय तक चलने वाली इस बहस ने मीडिया में दलित अस्मिता के प्रश्न को बुनियादी स्तर पर खड़ा कर दिया। दलित बुद्धिजीवी पत्रकारों ने अपने-अपने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करने शुरू कर दिए। हाशिए की आवाज, हिमायती, वॉयस ऑफ बुद्धा, बहुजनों का बहुजन भारत, बहुजन संगठक, बयान, दलित अस्मिता, अश्वघोष, मूकवक्ता, अपेक्षा, दलित वॉयस, वॉयस ऑफ द वीक, दलित साहित्य, सम्राट, न्याय-चक्र, सर्वहारा बुलेटिन, अभिमूक नायक, सजग प्रहरी, दलित दुनिया, बहुजन संघर्ष, धम्म-दर्पण आदि। दलित पत्र एवं पत्रिकाएं वैकल्पिक मीडिया के तौर पर खड़ा करने की कोशिश की गयी और इसमें दलित पत्रकार काफी सफल भी रहे।
यद्यपि ये पत्र-पत्रिकाएं सवर्ण मीडिया की प्रतिस्पर्धा में कहीं भी टिक नहीं पा रहे थे। परन्तु उनको निरन्तर चुनौती देते प्रतीत अवश्य होते रहे हैंइसलिए मीडिया में अस्मिताओं का प्रश्न आवश्यक भी हो जाता है।उत्तर भारत में दलित पत्रकार बड़े मीडिया समूहों में चोरी छिपे घुसपैठ किए हुए है। वह भी अपनी अस्मिता छुपाकर और वे सभी खबरों का विश्लेष्मण और उल्लेख भी करते हैं जो दलित विरोधी होती हैयह उनकी मजबूरी है। दक्षिण भारत में सामाजिक न्याय आंदोलन का केन्द्र बिन्दु तमिलनाडु में एक करोड़ 20 लाख की दलित आबादी में 10 या 15 दलित पत्रकार मिलेंगे और वे भी अपनी जाति छुपाकर मीडिया में काम कर रहे हैं। स्पष्ट है कि मीडिया संस्थानों में समाज के कमजोर तबके का प्रतिनिधित्व करने वाला गिना चुना पत्रकार भी अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहा होता है। यद्यपि प्रशासन में जहां आरक्षण के नियम वैधानिक रूप से लागू किए जा रहे हैं, वहां पर जाति, लिंग, धर्म व अन्य सामाजिक पृष्ठभूमि को लेकर कोई आपत्ति नहीं की जाती लेकिन मीडिया में धर्म, अभिजात्य व लैंगिक पूर्वाग्रह सामान्य तौर पर देखा जाता है।
जातीय पृष्ठभूमि
डाटा को देखकर समझा जा सकता है कि अन्य पिछड़े वर्ग का राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुख पदों पर प्रतिनिधित्व किस प्रकार है। इनकी आबादी 43 प्रतिशत है और मीडिया में इनकी हिस्सेदारी चार प्रतिशत है। मुस्लिम प्रतिनिधित्व तीन प्रतिशत है जबकि कुल जनसंख्या में हिस्सा 13.4 प्रतिशत है। दोहरे स्तर पर भेदभाव के शिकार होने वाले सामाजिक समूहों की उपस्थिति लगभग नगण्य है। प्रमुख पदों पर पिछड़ी जाति की महिलाएं नहीं हैं। मुस्लिम और ईसाई धर्म के बीच पिछड़ी जाति के सदस्य भी प्रमुख पदों पर नहीं के बराबर हैं।'
आरक्षण को लेकर चलने वाले आंदोलनों की खबरें मीडिया में बहुत कम दिखाई देती है। यदि कहीं उनकी कवरेज की जाती है तो नकारात्मक रूप में। इसे हम मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किए जाते समय इसके विरोध में उठे आंदोलन के रूप में देख सकते हैं। भारत में जितने भी विश्वविद्यालय हैं उनमें मीडिया एवं जनसंचार संबंधी पाठ्यक्रम लागू किया गया है। इन संस्थानों में प्रवेश भी आरक्षण के नियमों के आधार पर दिया जाता है लेकिन आश्चर्य यह है कि यहां से पाठ्यक्रम पूरा कर निकलने वाले डिग्रीधारी पत्रकार विद्यार्थी मीडिया में कहीं दिखाई नहीं देते। या तो मीडिया पढाने वाले योग्य शिक्षक नहीं है या फिर मीडिया संस्थानों में इन वर्गों के पत्रकारों को अवसर नहीं दिए जाते। इससे इन तबकों के पत्रकारों की अस्मिता को ठेस पहुंचती है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है।
आदिवासी भारतीय समाज व्यवस्था में उपेक्षित पड़े हुए है। आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दुस्तान के मीडिया समह में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कहीं भी दिखाई नहीं देता। सवर्ण मीडिया हमेशा दलित, आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग से आने वाले योग्य व्यक्तियों को अयोग्य घोषित करता रहा है। मीडिया बराबर यह प्रयास करता रहा है कि सामाजिक जन-आंदोलनों को राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से या संत समागम की खबरों से दबा दिया जाए। उनकी खबरों का मुख्य संकेत धर्म-परिर्वतन, संविधान की अनुपयोगिता तथा बहुसंख्यक दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों को अकर्मण्य घोषित करना रहा है। आजादी के बाद जितने भी जन आंदोलन हए हैं उन सभी में मीडिया की भूमिका नकारात्मक रही है। सत्ता परिवर्तन के लिए तथा अपने अनुकूल सरकार स्थापित करने के लिए मीडिया ने संचार-तंत्र का हमेशा दुरुपयोग किया है।
हिन्दुस्तान में आदिवासियों की संख्या कम नहीं है लेकिन सरकार की उपेक्षा के रण ही आदिवासियों में अभी भी आधनिक यग के विकास की हवा नहीं पहुंच पायी है। वे अभी भी पुराने परम्परागत पेशों व कार्यों से जुड़े हुए हैं। उनके जीवन जीने और जीविकापार्जन के तौर-तरीके पुराने हैं जिनको हम सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक रूप में देख सकते हैं। जहां तक शिक्षा की बात है हिन्दुस्तान में आदिवासियों के बीच शिक्षा एक प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। ऐसे में यदि आदिवासियों के बीच से कोई योग्य पत्रकार निकलकर बाहर आता है तो वह अपनी अस्मिता के संघर्ष में ही सारी ऊर्जा खत्म कर देता है। अतः आदिवासी की अस्मिता का प्रश्न भी मीडिया के बीच विशेष बहस का विषय है। इस तथ्य को हम पिछले दिनों की कुछ खबरों से अच्छी तरह समझ सकते हैं अंडमान निकोबार में जारवा आदिवासियों के साथ पिछले दस वर्षों से जो शोषण का सिलसिला चल रहा था उसे भारतीय मीडिया ने उजागर नहीं किया।
इस घटना का ब्यौरेवार विवरण ब्रिटिश मीडिया ने दिया। वह भी अपने बाजार का ध्यान रखते हए दिया गया। भारतीय मीडिया में यह खबर विदेशी मीडिया से खरीदी गई और तब उसे टीआरपी के तहत प्रसारित किया गया। स्पष्ट है कि यदि आदिवासियों का प्रतिनिधित्व मीडिया में रहा होता तो ये खबरें बाजार की खबर ना होकर मूलभूत सामाजिक परिवर्तन की खबर होतीमध्य प्रदेश व उत्तर-पर्व के राज्यों में दलित आदिवासियों की जो सिथति है उसका विवरण हमें स्वयं सेवी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) के माध्यम से मिलता है। पुणे के पास बसाया जाने वाला लवासा शहर लाखों आदिवासियों के गांवों को उजाड़कर बसाया जा रहा है। इसकी खबर अभी तक मीडिया में नहीं आयी है। परे हिन्दस्तान में विकास के नाम पर जो भी तोड फोड हो रही है, वह आदिवासी क्षेत्रों में ही हो रही है। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, नर्मदा नदी घाटी परियोजना की तलहटी में बसे गांव से उजाड़े गए आदिवासियों की खोज खबरें शायद ही मीडिया में कभी देखने को मिलती होंउनके बारे में जो भी खबरे आती हैं वे आंदोलनों के माध्यम से या स्वयंसेवी संस्थाओं की रिपोर्टों में या व्यक्तिगत रूप से किए गए सर्वे के माध्यम से उपलब्ध होती हैं। इसका प्रमुख कारण मीडिया में आदिवासी प्रतिनिधित्व का न होना ही है।
यह विडम्बना ही है कि भारत सार्वभौम, जाति निरपेक्ष्य, धर्म निरपेक्ष्य, क्षेत्रीयतावाद से अलग एक गणतांत्रिक देश होते हुए भी इस तरह के भेदभाव का शिकार रहा है। सरकारी तौर पर इन स्थितियों से निपटने के लिए बेहतर प्रयास की जरूरत है। इसलिए मीडिया में प्रत्येक क्षेत्र एवं समाज से जन प्रतिनिधियों का होना आवश्यक है।
देश की आजादी के बाद अपनी अलग पहचान की मांग तथा अस्मिता के विभिन्न पहलुओं पर उठने वाले आंदोलन विशेषकर धार्मिक, जातिगत, प्रजाति, भाषा, क्षेत्र और लिंग आधारित अस्मिताओं में अपनी अलग पहचान बनाए रखने की कोशिश तथा आधुनिक भारत में निरन्तर विकास के कारण विस्थापन की स्थिति ने अस्मिता के प्रश्न को और मजबूत किया है। सामाजिक, सांस्कृतिक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय संदर्भ प्रत्येक स्थिति में अस्मिता संदर्भित अपने वजूद को बचाए रखने का कारण नजर आने लगे। भारत के उपेक्षित वर्गों में हमेशा अंतर्द्वद्व, विरोध, तनाव तथा मतभेद दिखाई देते रहे हैं। इसका पूरा लाभ मीडिया ने उठाया जैसा वे चाहते थे उसी अनुरूप उनको वातावरण मिला, पूरी चालकी से मीडिया से कमजोर तबके न कर दिया गया। सबसे नाजक स्थिति मस्लिम समदाय के प्रतिनिधित्व को लेकर रही। मीडिया में इनका प्रतिनिधित्व गिना-चुना या यूं कहें कि मीडिया घरानों का पिछलग्गू बना दिखाई देता रहा है।
धार्मिक पृष्टभूमि
इसमें विभिन्न स्तरों पर जाति, वर्ग, धर्म और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का घोर अभाव है। हिंदू उच्च जाति के पुरूषों का राष्ट्रीय मीडिया पर वर्चस्व है। भारत की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी आठ प्रतिशत है, लेकिन मीडिया संस्थानों में फैसले लेने वाले पदों में 71 प्रतिशत उनके हिस्से में आता है। राष्ट्रीय मीडिया में विभिन्न जातियों के प्रतिनिधित्व में असमानता के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। द्विज हिंदुओं (द्विजो में ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत, वैश्य और खत्री शामिल हैं) की जनसंख्या 16 प्रतिशत है, लेकिन मीडिया में प्रमुख पदों पर उनकी हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है।
केवल ब्राह्मण (इसमें भूमिहार, त्यागी भी शामिल है) के हिस्से में 49 प्रतिशत है। सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद तथा पूंजीवादी राष्ट्रों की हिमायत करने वाले मीडिया ने जब बहुतराष्ट्रीय कंपनियों का प्रचार-प्रसार करना शुरू किया तो उसने मुस्लिम राष्ट्रों को तटस्थ कर दिया। परिणामतः सोवियत संघ से अलग हुए राष्ट्र आपस में उलझ गए। उन्हें आंतकवादी एवं निरंकुश राष्ट्र घोषित किया जाने लगा। उनकी गरीबी का गलत विश्लेषण कर पूरे विश्व में प्रचारित किया जाने लगा इन राष्ट्रों को सेक्स व्यापार, मानव तस्करी एवं आंतकवाद की आग में झोंक दिया गया। खाड़ी के देशों में पैट्रो उत्पादकों पर कब्जे को लेकर ना खत्म होने वाला युद्ध शुरू हो गया। इस सबमें मुस्लिम समाज को विश्व समुदाय से अलग-थलग कर दिया।
परिणामतः पूरी दुनिया में मुस्लिम राष्ट्रों एवं मुस्लिम समाज के प्रति मीडिया ने जो दुष्प्रचार किया उसका पूरे विश्व में गलत संदेश जाने लगाहालात ये हुए कि इस समाज से कोई व्यक्ति मीडिया में पैठ कर तथ्यों एवं वास्तविकताओं को उजागर नहीं कर सका परिणामत: मीडिया का साम्राज्य बहर्राष्टीय कम्पनियों एवं पंजीवादी देशों के प्रचार-प्रसार में उस समुदाय एवं राष्ट्र को बदनाम करता रहा जो इनके खिलाफ थे। मीडिया के कारण ही इस समाज में दहशत, असुरक्षा, आशंका, बराबर बनी रहीं। साम्प्रदायिक हिंसा से लेकर सामाजिक द्वेष पैदा करने की भावना को मीडिया ने ही प्रसारित किया। इसका मुख्य कारण मीडिया में मुस्लिम समाज का उचित प्रतिनिधित्व ना होना है।
देश की कुल आबादी का सबसे बड़ा उपभोक्ता दलित, उपेक्षित व पिछड़ा वर्ग समूह है। मीडिया की खबरों को पढ़ने, सुनने, देखने वाला सबसे बड़ा वर्ग भी यही है। एक तरह से मीडिया के बाजार को बनाए रखने वाला वर्ग भी यही है, लेकिन मीडिया में इसकी खबरें नगण्य होती हैं। यदि कोई खबर आती भी है तो वह नकारात्मक रूप में या अपमानित करने के लहजे में जिससे यह वर्ग समूह अपनी यथास्थिति को मीडिया की टिप्पणियों के अनुरूप समझते हुए आत्मकुंठा का शिकार हो जाता है। स्वाभाविक है कि ऐसे में अपना प्रतिनिधित्व ना होने पर यह वर्ग उस मीडिया की हर खबर को सच समझाते हुए स्वीकार करता रहा है जबकि वास्तविकता कछ और ही होती है। पत्रकारिता में लैंगिक भेद भी सर्वत्र दिखाई देता है। भारत में पत्रकारिता उतनी विकसित रूप में नहीं है जितना यूरोपियन और अमेरिकन देशों में है लेकिन वहां भी पत्रकारिता में लैंगिक भेद दिखाई देता है।
स्त्री -पुरुष भेद
सारणी से पता चलता है कि पत्रकारिता में स्त्रियों की भागीदारी 17 प्रतिशत से भी कम है, तो अंग्रेजी विशेषकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में स्त्रियों की भागीदारी संतोषजनक दिखाई देती है। भारतीय पत्रकारिता का यह एक दु:खद पहलू है कि विज्ञापन में जितनी अधिक महिलाएं प्रयोग में लाई जाती हैं, पत्रकारिता में उसका एक प्रतिशत भी हमें दिखाई नहीं देता है। प्रश्न यह है कि शिक्षा, पत्रकारिता में विशेषज्ञता, विशिष्ट संस्थानों में अपनी पैठ मजबूत करने वाली महिलाएँ पत्रकारिता से क्यों गायब दिखती है?
बडे मीडिया घराने तो साम्प्रदायिकता एवं व्यवस्था के कायल होते हैं इसलिए : मानसिकता धार्मिक एवं राजनैतिक स्तर पर अपने संस्थान के लिए महिलाओं का उपयोग करने भर इसलिए वे महिलाएं जो हिम्मत कर अपनी रूचि के आधार पर पत्रकारिता को प्रोफेशन के रूप में अपनाती हैं, सिर्फ वे ही पत्रकारिता में दिखाई देती हैं। महिलाओं से संबंधित खबरें हमेशा मसालेदार या सतही स्तर की बनाकर उपभोक्ताओं को रिझाने के लिए प्रस्तुत की जाती हैं। महिलाओं के संघर्ष, उत्पीड़न, उपेक्षा की खबरें शायद ही कभी मीडिया में देखने को मिले।
महिला दिवस, नारी जागृति या सरकारी विज्ञापनों में सरकारी खबरों के रूप में महिलाओं से संबंधित खबरें तो कभी-कभी देखने को मिल भी जाती है लेकिन इन खबरों के पीछे का सच प्रशासन एवं व्यवस्था के आंकड़े दुरुस्त करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। इस पर सरकार की योजनाएं जो बनाई जाती हैं उन योजनाओं को खबर के रूप में ना छापकर विज्ञापन के रूप में प्रचारित करता है इसके पीछे विज्ञापन से मिलने वाली मोटी सरकारी रकम का आकर्षण होती है।
आधुनिक पत्रकारिता ने पेड न्यूज के प्रचलन में पत्रकारिता के परिवेश को और बदरंग किया है। यद्यपि ये खबर ना होकर विज्ञापन होते हैं पर इनका प्रसारण एक प्रकाशन इस तरह से किया जाता है कि ये खबर की तरह से लगें। पत्रकारिता में इस तरह के प्रचलन ने महिला पत्रकारों की अस्मिता पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है।
महिला सांसद, विधायक, सिनेमा में काम करने वाली महिलाएं सरकारी पदाधिकारी महिला या किसी भी क्षेत्र में लोकप्रियता प्राप्त महिला पेड न्यूज का हिस्सा बनकर विज्ञापन के रूप में मीडिया संस्थानों की आमदनी ही बढ़ा रही हैं जबकि मीडिया में कार्य करने वाली महिलाओं की भागीदारी एक आंकड़े के अनुसार कुल कार्य करने वालों का 8 फीसदी ही हैं यह आश्चर्य का विषय है कि जिस मीडिया में महिलाओं से संबंधित खबरें 50 प्रतिशत से अधिक होती हों उस मीडिया में महिलाओं की भागीदारी मात्र 8 प्रतिशत हो। स्वाभाविक है कि महिलाओं से संबधित खबरों के प्रति न्याय करने का अधिकार भी जब पुरूषों के हाथ में हो तो सही खबर का जाना संभव नहीं हो पायेगा।
महिलाओं से संबंधित पत्र-पत्रिकाएं बाजार में बहुतायता उपलब्ध हैं। इन पत्रिकाओं के संचालन का कार्यभार पुरूषों के हाथों में होता है। यह वे ही तय करते हैं कि लेख, संपादकीय, विचारणीय प्रश्न, विज्ञापन एवं मनोरंजन की खबरें किस रूप में और क्या छापी जाएं?
यहां तक कि संपादक, संवाददाता, लेखक का नाम भी संचालन मंडल ही तय करता है। स्वाभाविक है कि जो कुछ भी छापा जायेगा वह संचालन मंडल की इच्छा के अनुरूप ही होगाविजुअल मीडिया ने एंकरिंग करते हुए, न्यूज पढ़ते हुए या विषय की प्रस्तुति करते हुए और पीटीसी दे रही महिला रिपोर्टर को देखकर ऐसा लगता है कि मीडिया में महिलाओं की भागीदारी अच्छी खासी है। इस स्थिति को देखकर जन-सामान्य का प्रफुल्लित होना भ्रम पैदा करता है। वास्तविकता कुछ और होती है जबकि पीटीसी, एंकरिंग और न्यूज रीडर के रूप में महिलाओं को उपयोग किया जाता हैखबरों में उनकी भागेदारी के आंकड़े चौंका देनेवाले हैं।'
सर्वे का राज्यवार ब्योरा
देश में जितने भी मीडिया पत्रकार हैं उनमें महिलाओं की संख्या कितनी है इसके आंकड़े सर्वे के द्वारा पेश किए गए हैं। यह सर्वे मीडिया में लैंगिक असमानता को दर्शाता है। आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 2.7 फीसदी महिलाएं ही मीडिया में कार्यरत हैं। इसमें राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश भी शामिल हैं। जिला स्तर पर तो पत्रकारिता में महिलाएं है ही नहीं। सबसे अधिक संख्या आंध्र प्रदेश में देखने को मिली जहां महिला पत्रकार एवं संपादकों की संख्या 107 है।
महिला सशक्तिकरण एवं प्रतिनिधित्व का प्रश्न मीडिया में अस्मिता के प्रश्न से जुड़ गया है। उपर्युक्त आंकड़ों के अनुसार इसे समझ सकते हैं कि मीडिया में महिलाओं की भागीदारी कितनी कम है। भारत में जिला स्तर पर मीडिया का विस्तार बड़ी तेजी से हुआ है। लोकप्रिय और बड़े अखबारों ने जिस तरह से कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवेश किया है वह चौंका देने वाले हैं। यही कारण है कि मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय 2011-12 तक 11 फीसदी के दर से विकास करता गया और मीडिया के इन प्रयासों की बदौलत यह व्यवसाय 72800 करोड़ रूपये का हो गया।
अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि यही पैठ इसी रूप में रही तो 2012 के अंत तक 13 फीसदी की दर से यह विकास होत कहने का अभिप्राय यह है कि मीडिया के इस विकास में महिलाओं का उपयोग जिस तरह से किया गया, उससे मीडिया का व्यवसाय तो बढ़, लेकिन महिलाओं को हिस्सेदारी नहीं दी गई। इस तरह से मीडिया में महिलाएं सिर्फ मनोरंजन के रूप में ही रखी गई।
चाहे वह एंकरिंग हो या न्यूज रीडर हो। एक सर्वे के मुताबिक मीडिया के निरन्तर प्रयोग ने यह साबित कर दिया है कि महिलाओं के सीमित उपयोग से भी 2016 तक मीडिया एवं मनोरंजन का व्यवसाय देश के आंतरिक क्षेत्रों में 1,45,700 करोड़ रूपये का हो जायेगा। इस तरह इन पांच वर्षों में मीडिया की कल विकास दर 15 प्रतिशत होगी। मीडिया और मनोरंजन जगत की विकास दर टेलीविजन की सबसे ज्यादा है जबकि प्रिंट मीडिया दूसरे स्थान पर हैं, वहीं रेडिया के विषय में बताया जाता है कि इसकी विकास दर 21 प्रतिशत हर साल रहेगी।
मीडिया समीक्षक एवं विशेषज्ञ प्रो. रॉबिन जेफरी के अनुसार भारत में मीडिया का कारोबार आने वाले समय में बहुत तेजी से बढ़ेगा लेकिन मीडिया में दलितों की भागीदारी नहीं होने से दलितों के लिए संविधान में दिये गये समानता, बंधुता की गारंटी एक विश्वासघात है। उन्होंने आगे कहा कि भारत के नों में न तो 1992 में कोई दलित था और ना आज है। यह कहानी भारत के 25 प्रतिशत आबादी (अनुसूचित जाति/जनजाति) की है। पत्रकारिता के प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक्स मीडिया में वह अनुपस्थित है। बी.एन. उन्नियाल ने भी लिखा है कि- 'वह पिछले 30 वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रहे हैं और इन वर्षों में ऐसा कोई पत्रकार नहीं मिला जो दलित हो, एक भी नहीं।'
उक्त दोनों विशेषज्ञों के वक्तव्य भारतीय मीडिया की निष्पक्षता के लिए गंभीर सवाल पैदा करते हैं। एक सर्वे के मुताबिक देश के 6 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों असम, झारखंड, नागालैंड, प्रदेश, उडीसा, मणिपुर, पांडेचैरी एवं दमन में महिला पत्रकार एवं संवाददाता शन्य के बारबर हैं जबकि सिक्किम और मेघालय में यह प्रतिशत 16.66 है। बिहार में 9.56 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 9.38 प्रतिशत महिला संवाददाता एवं संपादक है। बिहार में 251 संवाददाताओं और संपादकों में 24 महिलाएं हैं वहीं छत्तीसगढ़ में 32 पत्रकारों में सिर्फ 3 महिलाएं हैं।
पूरे देश में 10 राष्ट्रीय एवं भाषायी अखबारों में महिला पत्रकारों की संख्या पर यदि गौर किया जाए तो सर्वाधिक मान्यता प्राप्त पत्रकार स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर के अखबारों एवं मीडिया संस्थानो से जुड़े हैं। आंकडों के अनुसार देश भर में 2 महिला पत्रकारों को स्वंतत्र पत्रकार के तौर पर मान्यता प्राप्त है। उसमें भी एक स्वतंत्र फोटोग्राफर है।
उसी तरह 2006 में मीडिया स्टडी ग्रुप द्वारा अनिल चमड़िया व योगेन्द्र यादव द्वारा एक मीडिया से संबंधित सर्वे किया गया था उस सर्वे के मुताबिक मीडिया में शीर्ष पदों पर निर्णय लेने वाली महिला पत्रकारों का प्रतिशत महज 17 फीसदी बताया हैयह सर्वे 315 महत्वपूर्ण पदों पर स्थित मीडिया के शीर्षस्थ व्यक्तियों का था।
गांव के मुकाबले शहरों में शिक्षा एवं रोजगार के अवसर अधिक होने के बावजूद मीडिया में महिलाओं का प्रवेश 2006 के मुकाबले आज 2011-12 में बहुत कम हुआ है। यद्यपि देश के अन्य संस्थानों में नौकरी पेशा महिलाओं की भागीदारी जहां बढ़ी है वहीं मीडिया के क्षेत्र में यह कम हुई है। निश्चित रूप से महिलाओं की अस्मिता के प्रश्न मीडिया के लिए चुनौती है। मीडिया को अपने प्रारूप में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए जिससे महिलाओं में मीडिया में काम करने को लेकर रूचि पैदा हो और वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से मीडिया में अपने आपको असुरक्षित ना समझेंमीडिया में अस्मिताओं के प्रश्न तब तक बरकरार रहेंगे जब तक कि समाज के प्रत्येक तबके को मीडिया में उचित भागीदारी नहीं मिलेगी और मीडिया अपना एक तरफा रवैया प्रस्तुत करते हुए कुछ खास वर्गों की संतुष्टि का साधन बना रहेगा।
स्वाभाविक है कि संविधान प्रदत्त आरक्षण की व्यवस्था मीडिया में भी सुचारू रूप से लागू होनी चाहिएतभी समाज के उपेक्षित, दलित एवं पिछड़े वर्गों के प्रति उचित न्याय हो पायेगा। मीडिया का वर्गीय चरित्र विवादास्पद होने के कारण ही इसमें धार्मिक, आर्थिक, जातिगत, एवं लैंगिक भेद सर्वत्र दिखाई देता है। समाज के सभी वर्गों की समान भागीदारी ना होने पर मीडिया से न्याय की अपेक्षा करना संभव नहीं है। इसलिए आवश्यक है कि मीडिया में प्रवेश के लिए आरक्षण के प्रावधान उचित रूप में लागू किए जाए जिसमें महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए।
संदर्भ
मीडिया और दलित, संपादक, हंसराज 'सुमन', मीडिया स्टडीज ग्रप द्वारा सर्वे-अनिल चमडिया मीडिया स्टडीज ग्रुप द्वारा सर्वे अनिल चमडिया, योगेन्द्र यादव मीडिया और दलित, संपादक, हंसराज 'सुमन', पृष्ठ-15 मीडिया स्ट्डीज ग्रुप सर्वे 2006, मीडिया और दलित, संपादक, हंसराज 'सुमन', पृष्ठ-17 चौथी दुनिया, 4-10 जून, 2012, अभिषेक रंजन सिंह 9 अप्रैल, 2012, हिन्दु, नई दिल्ली चौथी दुनिया, 4-10 जून, 2012, अभिषेक रंजन सिंह
(लेखक एसोसिएट प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष,हिंदी विभाग,श्री ऑरबिंदो कॉलेज,दिल्ली यूनिवर्सिटी हैं साथ ही समसामयिक मुददे पर लिखते रहते है , अम्बेडकरवादी विचारधारा से है। ये लेखक के निजी एवं स्वतंत्र विचार हैं)