बौद्ध काल में सामाजिक गतिविधियाँ और बुद्ध के सामाजिक योगदान

बौद्ध काल में सामाजिक गतिविधियाँ और बुद्ध के सामाजिक योगदान


पिंकी देशराज,पी.एच.डी शोधार्थी,दर्शनशास्त्र विभाग,दिल्ली यूनिवर्सिटी


                                      ब्यूरोक्रेसी टाइम्स ग्रुप I दिल्ली 


बौद्ध काल में सामाजिक दशा :


भगवान बुद्ध के उपदेशों के प्रबल प्रभाव के रहस्य को समझने के लिए तत्कालीन समाज तथा धर्म की अवस्था अच्छी तरह जानना आवश्यक है। पालि साहित्य के अनुशीलन से सामाजिक तथा धार्मिक दशा की गतिविधियों की जानकारी हमें प्राप्त होती है। भगवान बुद्ध के समय समाज की दशा अस्त व्यस्त थी। उस समय समाज में नाना प्रकार की जाति तथा वर्णों की विषमता थी। जन समाज आज के ही समान अनेक जातियों में बँटा हुआ था।' समाज में एसे लोग भी थे जिनमें दया थी और जो दया और धर्म के भूखे थे। पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए हाथ फैलाने वाले लोग भी थे और उस हाथ को खाली न लौटाने वाले भी थे कहा जा सकता है कि समाज में बड़ी समस्या थीपेट की भूख की ज्वाला को शांत करने क लिए कुछ लोग बड़े आदमियों की जूठन भी खाते थे। भगवान बुद्ध के समय से पहले बड़ी भयानक बात तो यह थी कि यज्ञ में पशुवध होता था। यज्ञ जैसे पवित्र कर्म में यज्ञ वेदी को पशुओं के खन से लाल किया जाता था यह इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि यजमान का इसमें कोई भला होगा। किन्तु पुरोहितों का यह काम था और वे यज्ञमानों को यज्ञ कराने के लिए उत्साहित करते थे बिना दान दक्षोणा के यज्ञ को अछूत समझा जाता थाब्राह्मणों को बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं दी जाती थी जैसे सोना चांदी आदि।


बौद्ध धर्म-समाज के संदर्भ में:


बुद्ध एवं बौद्ध धर्म ने अपनी ऐतिहासिक दृष्टि में युग समाज और व्यक्ति को प्रमुखता दी है, धर्म समाज के लिए अपने सम्पूर्ण स्वरुप के लिए उतरता हैवह समाज की उन अवधारणाओं, भ्रांतियों तथा अवहेलनाओं को धर्म के द्वारा हटाने का प्रयास करते है। समाज में जब शूद्रों को दबाया जा रहा था तथा दासों की प्रथा बढ़ रही थी तब बौद्ध धर्म ने अपने स्वरुप में इस तरह की बनावट रखी जिससे इन शूद्रों को बहुत राहत मिली।


बुद्ध समाज में हर प्राणी की भलाई चाहते है :


बुद्ध यथार्थवादी थे अतः जब उन्होंने अपनी शिष्य मंडली को कर्म क्षेत्र में उतरने का आदेश दिया, बौद्ध धर्म का प्रचार करने की प्रेरणा दी तो उन्होंने यह नहीं कि समस्त प्राणियों के हित के लिए प्रयत्नशील रहना, अपितु यह कहा कि बहुत जनों के हित के लिए बहुत जनों के सुख के लिए (बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय) विचरण करों बुद्ध जानते थे कि बहुत जनों का हित और सुख कभी-कभी कुछ लोगों के हितों के विरुद्ध होता है। समाज विपरीत हितों में बंटा हुआ है। उनके विचार में आदि मानव सांसारिक वस्तुओं का जो उपयोग करते थे वही आदेश था वह लोभ जिसन उस समानता का नाश किया तथा व्यक्तिक सम्पत्ति को जन्म दिया, मौलिक अपराध था जिसके कारण मानवता अब तक दुख भोग रही है और भोगती रहेगी। उसके मतानुसार इस व्यक्तिक संपत्ति का लोभ ही चोरी का जन्मदाता हैं। और चोरी से हत्या एवं कलह की उत्पत्ति हुईइन बुराइयों से बचने के लिए मनुष्य ने राजा स्वीकारा। उन्हें मानव समाज के इस रोग की कोई औषधि नहीं मिली उन्होंने अपने ढंग से अपने भिक्षुओं और भिक्षुणियों में समानता का प्रचार करने का प्रयत्न किया।'


पालि साहित्य में निहित सामाजिक सन्देश :


उस समय समाज में अराजकता का बोलबाला था। सामन्त लोग अपने ही पापों से जूझ रहे थे व शांति का पथ पाना चाह रहे थे समाज में व्याप्त पाप तथा उन्हीं के द्वारा किये कर्म उन्हें झुलसा रहे थे। इस प्रकार की धार्मिक सीमाएं बना दी गई थी कि उससे आगे जन मानस कुछ सोच ही न पाता था। बौद्ध धर्म के आगमन से (प्रजा) समाज पर धर्म की आग में झुलसे हुए समाज पर एक गहरा शांति का छींटा पड़ा जिस छिटे से समाज के सभी वर्ग के लोगों को सुख का अनुभव हुआउस समय की सामाजिक परिस्थिति में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी।' समाज में स्त्री को नीचे दृष्टि से देखना यह एक आम बात थी, सबसे खराब दशा तब आई जब स्त्री का व्यापार होने लगा, स्त्री हाटों, बाजारों में खरीदी व बेची जाने लगी, स्त्री ने दास्ता स्वीकार कर ली और अपना भविष्य समाज के पुरुषों के हाथ में छोड़ दिया, स्त्रियों का उपयोग अनेक तरह से गलत रुपों में होने लगा। कहा जा सकता है कि उस समय समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी यह आम्रपाली पर हुई जबरदस्ती से पता चलता है। उसकी सुन्दरता ने ही उसे वज्जी संघ की नगरवधू बनने पर लाचार कर दिया। जो आभूषण था, वही बेड़ी बन गया। इस प्रकार स्त्री की समाज में कोई सुनवाई नही थी। यही आम्रपाली सारे जीवन वैशाली के सामंतो, सेठ्ठिपुत्रों का मनोरंजन करती रही और अपनी आत्मा को तिल-तिल लुटाती रही। आखिरकार इस आम्रपाली को भी धन्य किया बुद्ध ने ही, उसके धर्म ने उसे अपने से समेट लिया और आमपाली के साथ सिमट गये उसके तमाम दुख और अवसादयह एक बहुत बड़ी मिसाल थी और धर्मों के लिए तथा समाज के लिए किसी नगरवधू का संघ में आ जाना और प्रव्रज्या या जाना और कोई साधारण बात नहीं थी परन्तु स्त्री के दुख और पोड़ा को भगवान बुद्ध ने समझा और उसे शरण दी।


पालि साहित्य में सामाजिक जातिय व्यवस्थाः


पालि साहित्य में उल्लेख है कि बुद्धों व बोधिसत्त्वों का जन्म केवल क्षत्रिय या बाह्मण परिवारों में हो सकता है अन्य किसी जाति में नहीं भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा सामाजिक-धार्मिक आंदोलन बनना नियत था। संघ में निम्न जातियों, विशेषकर शूद्रो, का काफी कम प्रतिनिधित्व होना आश्चर्यजनक है थरगाथा और थेरीगाथा में उल्लिखित विभिन्न थेरों और थेरियों पर उपलब्ध ऑकडों का विश्लेषण दर्शाता है कि गौतम बुद्ध ने तत्कालोन समाज के आधार पर वर्ण-जातोय शब्दों का इस्तेमाल किया उन्होंने ब्राह्मणों के कर्मकांडों की शुद्धि के दावों तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की खिल्ली उड़ाई और कहा कि व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके व्यक्तिगत शील पर निर्भर करती है न कि उसके परिवार वर्ग या सामाजिक उत्पत्ति पर। बुद्ध ने शिक्षा प्रदान करने में किसी प्रकार का भी भेदभाव नहीं रखा जहां तक किसी व्यक्ति के संघ में प्रवेश की बात की, जन्म, पेशा, सामाजिक स्तर के हानि लाभ से उसका कोई लेना देना नहीं था अपने विचार के समर्थन में उन्होंने विनपाचारिय उपालि (नाई), सुनीत (पुक्कुस), साति (मछआरा), सुभा (लोहार की बेटी) पुष्णा और पुष्णिका का उदाहरण दिया हैसुत्त-निपात के आमगंध सुत्त का उदाहरण दिया है जिसमें बुद्ध ने बताया है कि इस या उस व्यक्ति के द्वारा बनाया या दिया गया खाना, इसके या उसके द्वारा खाने से कोई दोष होता है, बल्कि बुरे कर्म, बुरी बात और बुरे विचार से दोष होता है। चंडाल का दर्शन भी अशुभ माना जाता था। उच्च जातीय लोगां विशेषकर महिलाओं की दृष्टि यदि दूर से भी किसी चंडाल पर पड़ जाती थी तो वो अपनी आंखों को धोती थीचित्त-सम्भूत जातक में बताई गई एक घटना के अनुसार दो स्त्रियाँ एक धनी व्यापारी की जो नगर के द्वार की ओर जा रही थी उन्होंने दो चंडाल भाइयों को देखा और सुगंधित पानी से अपनी आंखों को धोया और वापस लौट गई। बेचारे चंडालों को लागों ने खूब पीटा क्योंकि उसके कारण उनकी आँखे दूषित हो गई। सतधम्म जातक में भी जाति नियमों की क्रूरता का उदाहरण मिलता है इस जातक की कथा के अनुसार दो युवक एक ब्राह्मण और एक चंडाल, किसी लंबी यात्रा पर एक साथ जाते है एक ब्राह्मण का किसी चंडाल के साथ यात्रा करना एक असाधारण बात थी, केवल चंडाल यवा, जो बोधिसत्व था, यात्रा पर खाद्य सामग्री लेकर गया। रास्ते में भोजन से पूर्व चंडाल ने ब्राह्मण को शमिल होने के लिए आमंत्रित किया जिसे निसदेह ब्राह्मण ने ठुकरा दिया दिनभर यात्रा करने के बाद, बोधित्व ने शाम को अपना भोजन दूसरी बार किया ब्राह्मण जो इस समय तक काफी थक चुका था, तेज भूख का अनुभव कर रहा था उसकी भूख ने उसे उसकी जाति के बारे में सब भुला दिया और इस बार उसने चंडाल से भोजन मांगा और खाया। भोजन समाप्त करने के शीघ्र बाद उसे काफी दुख तथा पश्चाताप हुआ कि उसने ब्राह्मण होकर चंडाल का अवशिष्ट एवं उच्छिष्ट हुआ भोजन खाया और खून के साथ उसकी उल्टी कर दी। इस भूल से उसन खुद को इतना दोषी समझा कि उसने भूखे रहकर मरने का फैसला किया और आत्महत्या करने के लिए जंगल की ओर चला गयाकहा जाता है कि जब कुछ शाक्य युवक और उनका नौकर व शूद्र उपालि बुद्ध के पास इकट्ठे होकर दीक्षा लेने के लिए पहुंचे तो बुद्ध ने उपालि को दीक्षा पहले दी ताकि शाक्यों का जन्म व जातिनुमा घमंड दूर किया जा सके इसलिए यह इन्कार नहीं किया जा सकता है कि बौद्ध धर्म ने भारत में सामाजिक संगठन पर स्थायी प्रभाव छोड़ा हैपालि साहित्य में भगवान बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं और संदशों द्वारा अहिंसा के साथ साथ सामाजिक स्वतंत्रता, बौद्धिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वतंत्रता का भी आंदोलन चलाया था। 


पालि साहित्य में गृहस्थ जीवन के लिए सन्देश :


भगवान बुद्ध ने सिगालसुत्त में सिगाल को उपदेश देते हुए कहा कि उनके धम्म में पूरब का मतलब माता-पिता, दक्षिण का मतलब गुरू और शिक्षक, पश्चिम का मतलब पत्नी और बच्चे, उत्तर का मतलब मित्र और रिश्तेदार और समाज, धरती का मतलब कर्मचारी, नौकर चाकर और आसमान का मतलब साधु-संत, महापुरूष तथा आदर्श व्यक्ति होता है। बुद्ध ने कहा कि छः दिशाओं की पूजा इस ढंग से करनी चाहिए। भगवान बुद्ध ने अपने माता-पिता की सेवा करना सिखाया उन्होंने किसी काल्पनिक ईश्वर को नही बल्कि माता पिता को ही ब्रह्मा कहा पति और पत्नी के बीच के प्यार को उन्होंने पवित्र प्यार की संज्ञा दी और उसे सादर ब्रह्मचर्य कहा। बुद्ध ने पति पत्नी के सम्बन्ध को सर्वोच्च सम्मान दिया बुद्ध ने कहा पति और पत्नी एक दूसरे के विश्वासपात्र रहे एक दूसरे का सम्मान करें एक दूसरे के पति अपने उत्तरदायित्व का पालन करें। 


भगवान बुद्ध के संदेश चिकित्सा शास्त्र के संदर्भ में:


विनय पिटक में खन्धक अध्याय में बुद्ध ने दवाइयों के बारे में उपदेश दिया है उनके जीवन को ऐसी अनेक घटनाएं मिलती है, जिनसे पता चलता है कि उन्होंने मानसिक बीमारी और चिन्ता को दूर करने से पहले शारीरिक बीमारी को दूर करने की ओर ध्यान दिया बुद्ध ने चिकित्सा विज्ञान पर जोर देने का परिणाम यह हुआ कि हर बौद्ध विहार व मठ चिकित्सा केन्द्र बन गया। इसी के परिणामस्वरूप भारत में बौद्ध राजाओं ने जगह-जगह मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाए। 


अहिंसक से डाकू अंगुलिमाल 


वो एक राज-पुरोहित ब्राह्मण का बेटा थाअहिंसक की शिक्षा प्रारंभ हुई। राजपुरोहित ने बालक को उच्च शिक्षा के लिए श्रेष्ठ विद्यालय में आचार्य माणेभद्र के पास भेजने की व्यवस्था कीधीर-गंभीर होने के साथ-साथ उसमें गजब की स्मरण शक्ति थी, इसलिए दूसरे छात्रों की तुलना में वह बहुत बुद्धिमान था। दूसरे छात्र उससे चिढ़ने लगेछोटी-छोटी बात पर आचार्य से शिकायत करते। बात इतनी बढ़ गई थी कि वो बालक अहिंसक से डाकू अंगुलिमाल बनने पर उसके सहपाठियों ने और उसके आचार्य ने मजबूर कर दिया। मगर डाकू अंगुलिमाल को भगवान बुद्ध ने अपनी शिक्षा से अपने उपदेशों से डाकू अंगुलिमाल से अहिंसक बना दिया। 


(लेखिका ब्यूरोक्रेसी टाइम्स समूह पत्रिका के लिए कंट्रिब्यूटिंग एडिटर का काम करती है.दिल्ली यूनिवर्सिटी के दर्शनशास्त्र विभाग से पी एच डी शोधार्थी है। समसामयिक ज्वलंत मुद्दों पर लिखती रहती है। ये लेखिका के निजी एवं स्वंत्रत विचार है)