समकालीन भारतीय समाज व शिक्षा का स्वरूप
डॉ.अशोक कुमार सिंह प्रवक्ता,बी.एड.विभाग,एस.सी.ई.आर.टी.दिल्ली
ब्यूरोक्रेसी टाइम्स ग्रुप/दिल्ली: प्रस्तुत लेख के द्वारा समकालीन भारतीय समाज व शिक्षा के स्वरूप को सविस्तार वर्णन किया गया है। जिसमें शिक्षा का अर्थ व स्वरूप क्या है तथा समाज क्या है तथा उसका क्या स्वरूप है? किस प्रकार एक दूसरे के साथ संबंध रखते हैं। किस प्रकार शिक्षा वर्तमान समाज को प्रभावित करने में अपनी भूमिका को बखूबी निभा रही है तथा किन-किन संदर्भो में शिक्षा समाज को प्रभावित करने में सहायक सिद्ध होती है। अत: प्रस्तुत लेख के द्वारा शिक्षा व समाज के संबंधों तथा किस प्रकार से दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं इसी सविस्तार वर्णन किया गया है।
प्रस्तावना शिक्षा (Education) :
शिक्षा एक जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जो व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के विकास में भरसक सहायक सिद्ध होती है। यह प्रक्रिया व्यक्ति का सार्वभौमिक विकास करती है तथा यह प्रकिया के गर्भ से लेकर व्यक्ति की कब्र तक चलती है। जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के विकास को प्रभावित करती है। अर्थात व्यक्ति व्यक्तित्व का निर्माण करती है और व्यक्ति के विभिन्न कलाओं से सजाती है तथा शृंगार करती हैव्यक्ति के आचरण तथा व्यवहार का उचित मार्गदर्शन करके समाज का एक उपयोगी व्यक्ति बनाने में सहायक होती है। शिक्षा के कारण ही मानव आज सभ्यता के ऊँचे शिखर पर पहुँच पाया है और एक सभ्य समाज का निर्माण करने में सफल हुआ हैयहाँ तक कि कुछ विद्वानों व शास्त्रियों ने शिक्षा को मनुष्य का तीसरा नेत्र कहा है :"ज्ञानं मनुजस्य तृतीय नेत्रां' इसी प्रकार गीता में कहा गया कि विद्या हमें मुक्ति दिलाती है“सा विद्या मा विमुक्तये"। इस प्रकार शिक्षा के महत्व को ध्यान में रखते हुए विभिन्न कतिपय मनीषियों ने अपने विचारों को द्रष्टव्य किया है :लॉक (Locke) के अनुसार–“पौधे का विकास जुताई से तथा मनुष्य का विकास शिक्षा से होता है।"
जॉन ड्यूबी (John Devey) के शब्दों में शारीरिक जीवन के लिए जिस प्रकार आहार तथा प्रजनन है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन के लिए शिक्षा है। इसी के संदर्भ में यहाँ तक कि अरस्तु ने कहा कि-"जिस प्रकार जीवित व्यक्ति मृतक व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है उसी प्रकार शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है।" अत: उपरोक्त के आधारपर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षा समाज की आत्मा है तथा जो समाज के चहुँ विकास में सहायक होती है तथा शिक्षा ही समाज का सही मार्गदर्शन करती है और समाज को ऊँचाइयों पर पहुँचाती है। शिक्षा की परिभाषाएँ कुछ विद्वानों ने शिक्षा को अपने शब्दों में इस प्रकार संजोया है जो निम्न प्रकार हैं सुकरात के अनुसार–“शिक्षा प्रत्येक मानव मस्तिष्क में अदृश्य रूप से विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना है।" फ्रोबिल (Frobel) के शब्दों में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियां और गुण प्रकट होते हैंपेस्टालॉजी के शब्दों में "शिक्षा मानव की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरूप और प्रगतिशील विकास है।" विवेकानन्द के अनुसार-"शिक्षा उस परिपूर्णता का प्रदर्शन है जो मनुष्य के अन्दर पहले से ही विद्यमान है।" उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारती है तथा व्यक्ति को विचारवान बनाकर समाज व राष्ट्र के लिए तैयार करती है। जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का विकास करती हैसमाज की रूपरेखा या समाज का स्वरूप समाज का अर्थ : व्यक्तियों के उद्देश्यपूर्ण समूह को समाज कहा जाता है और व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था को भी समाज के नाम से जाना जाता है साधारण भाषा में दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति सचेत होते हैं जागरूक होते हैं और एक दूसरे के प्रति कुछ व्यवहार करते हैं तो उनके बीच एक संबंध स्थापित होता है तो वह एक समाज का रूप लेता है। जिसे साधारण भाषा में समाज कहा जाता है। कुछ विद्वानों ने समाज को अपने शब्दों में इस प्रकार पिरोया है किएडम स्मिथ के शब्दों में—“मानव समाज के पारस्परिक संबंधों में मितव्ययिता के कृत्रिम उपाय का नाम समाज है।"
एच. ई. मेन्जर के शब्दों में–“समाज व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें सभी व्यक्ति किसी सामान्य कार्य में सचेत रूप से भाग लेते हैं। अत: उपरोक्त परिभाषाओं से यह बात सामने आती है कि समाज व्यक्तियों का ही समूह नहीं है बल्कि यह व्यक्तियों के बीच होने वाली अंतःक्रियाओं की जटिल व्यवस्था से है तथा उनके व्यवहार में पनपने वाले विभिन्न प्रकार के संबंधों को समाज कहा जाता हैशिक्षा और समाज के बीच संबंध वर्तमान में अगर शिक्षा और समाज के स्वरूप को देखा जाए तो दोनों एक-दूसरे का स्वरूप बहुत ही व्यापक हुआ है और प्रभावित भी हुआ हैअगर प्राचीन समय में देखे तो समाज अपने आप में एक बन्द या कुछ निश्चित आयामों पर ही निर्भर करता था। जैसे-समाज, जाति, धर्म, वर्ग विशेष आदि पर निर्भर करता था। इसलिए समाज का स्वरूप बहुत संकुचित (narrow रहा जिससे समाज वैश्वीरण और विभिन्न प्रकार के वैश्विक प्रतियोगिताओं में भारतीय समाज पिछड़ता चला गया परन्तु यह समाज का प्राचीन पहलू रहा था लेकिन वर्तमान में शिक्षा ने समाज के कुछ निरिचित आयामों को उभार दिया और आज भारतीय समाज अपने आप में एक स्वतंत्र समाज है जो जाति, धर्म, और वर्ग विशेष की पकड़ से उभर गया है। इस प्रकार शिक्षा ने समाज को एक नया आयाम देकर समाज को आगे बढ़ा दिया है लेकिन अगर बात शिक्षा के दूसरे पहलू की करें तो शिक्षा ने समाज का इतना प्रसार कर दिया है कि समाज में दिन-प्रतिदिन मूल्यों की भी कभी आ रही है। शिक्षा ने समाज में विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास करकें समाज को पूंजीवाद की तरह ढकेल दिया जिसके है जिसके कारण समाज में मूल्यों की कमी हो रही है जोकि स्वयं समाज और राष्ट्रों के लिए अपने आप में एक खतरनाक स्थिति पैदा कर रही है। इस प्रकार शिक्षा ने समाज के स्वरूप को किसी न किसी रूप में प्रभावित तो किया है। जो यह प्रभाव समाज पर धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही आयामों में भली प्रकार दिखता है। इस प्रकार दोनों के संबंध को शरीर की रीढ़ की हड्डी की तरह देखा जा सकता है। दोनों के संबंधों को एक दूसरे पहलू के आधार पर भी इस प्रकार देख सकतें हैं। किसी समाज की शिक्षा के अनुसार ही समाज बन जाता है समाज की आवश्यकताओ को ध्यान में रखकर समाज में शिक्षा की व्यवस्था की जाती है जैसे-जैसे समाज के स्वरूप में परिर्वतन होता है वैसे-वैसे शिक्षा के स्वरूप में परिर्वतन आ ही जाता है। अगर प्राचीन समय के दृष्टिकोण से देखे तो प्राचीन व मध्यकालीन समाज में धर्म का अधिक महत्व था तो इस काल में शिक्षा का स्वरूप धार्मिक रहाआधुनिक समाज में धर्म की अपेक्षा विज्ञान और तकनीकी पर अधिक बल दिया गया तो शिक्षा द्वारा व्यक्ति में चिंतन, मनन, तर्क, विवेक और निर्णय आदि मानसिक शक्तियों को विकसित किया गया। इसी प्रकार भौतिकवादी समाज में भौतिक सुख-सुविधाओं, धन और सम्पत्ति आदि को महत्व दिया जाता है। अत: इस प्रकार के समाज में शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार होता है जिसमें समाज के सदस्य अधिकाधिक धनोपार्जन कर सके और भौतिक क्षेत्र में श्रेष्ठता प्राप्त कर सकें। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि शिक्षा और समाज एक सिक्के के दो पहलू होते हैं अर्थात अगर समाज में परिर्वतन होगा तो शिक्षा में स्वयं ही परिर्वतन हो जायेगा और यदि शिक्षा में परिर्वतन होगा तो समाज का स्वरूप भी उसी प्रकार का दिखाई देने लगता है। अत: शिक्षा के इस परिर्वतन को हम समाज पर इस प्रकार निम्न बिन्दुओं के द्वारा देखा जा सकता है।
1. शिक्षा सामाजिक विरासत का संरक्षण (Education is presevation of social heritage) मुख्यतया समाजिक दृष्टि से प्रत्येक समाज के रीति-रिवाज परम्पराएँ, धर्म व नैतिकता सब अलग -अलग होती हैंजिसको एक साथ चीजों के रखना अपने आप में एक कठिन कार्य हैक्योंकि प्रत्येक समाज को अपने रीति-रिवाजों और संस्कृति पर बहुत गर्व है और इसको किसी भी कीमत पर नष्ट नहीं होने देना चाहते हैंइसलिए शिक्षा का योगदान इन सबको चीजों के रखना एक महत्वपूर्ण योगदान या कार्य है।
2. समाज के राजनैतिक विकास में सहायक'- शिक्षा ही संसार की विभिन्न राजनैतिक विचार धाराओं का ज्ञान किसी व्यक्ति को प्रदान करती हैशिक्षा द्वारा ही व्यक्ति या समाज दूसरे देशों की राजनैतिकता से तुलना करके समाज में होने वाली अन्तराल को पूरा करने में सहायक होती है यहाँ तक की शिक्षा ही व्यक्ति या समाज में राजनैतिक जागरूकता प्रसारित करती है तथा समाज को अपने कर्तव्यो और अधिकारों का ज्ञान देती है।
3. समाज का आर्थिक विकास– किसी भी समाज को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण है अत: शिक्षा किसी व्यक्ति में विभिन्न प्रकार के व्यवसायिक कौशलों का विकास करके उन्हें तरह-तरह के रोजगार के लिए तैयार करती है इस प्रकार व्यक्ति अपनी दक्षता के अनुसार रोजगार प्राप्त करता है। या उत्पादन करके समाज का आर्थिक विकास करता है।
4. बालक का समाजीकरण शिक्षा बालक में सामाजिक दक्षता को उत्पन्न करके अर्थात बालक या व्यक्ति को समाज की विभिन्न संस्कृति, रीति-रिवाज, धर्मो से अवगत कराके उन्हें समाज में जीने के काबिल बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है इसी सन्दर्य में दुर्थीम ने कहा- “शिक्षा अपने स्वरूप उद्भव एवं प्रकार्य की दृष्टि से सामाजिक प्रकिया है। अतः उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय में शिक्षा की भूमिका अतुलनीय रही तथा शिक्षा का स्वरूप समाज के स्वरूप के बदलने के साथ-साथ बदलता रहा और किसी न किसी रूप में एक प्रभाव दूसरे पर पड़ता ही है।
निष्कर्ष : अतः निष्कर्ष के रूप में उपरोक्त लेख के आधार पर यह कहना उचित होगा कि समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा का स्वरूप बहुत ही व्यापक हुआ है। जिसने समाज में धर्म, जाति, वर्ग विशेष आदि बेड़ियों से बाहर निकाल कर उन्हें एक स्वतंत्र समाज की संरचना में अपना सहयोग किया हैजो अपने आप में एक अतुलनीय है और यह भी सामने आता है कि शिक्षा और समाज एक सिक्के के दो पहलू हैं जो किसी ना किसी बिना किसी रूप में दूसरे से प्रभावित होता है। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य निष्कर्ष के रूप में सामने आता है कि वर्तमान में जिस प्रकार समाज में शिक्षा ने व्यापक या स्वतंत्र बनाया है उसी प्रकार कहीं न कहीं समाज के मूल्यों में गिरावट आयी है और समाज में पनपने वाली कई कुरीतयों ने जन्म भी लिया है। अतः इस प्रकार शिक्षा और वर्तमान समाज का स्वरूप एक दूसरे पर पूर्ण रूप से निर्भर है और व्यापक भी है।
(लेखक ब्यूरोक्रेसी टाइम्स पत्रिका समूह के कंट्रिब्यूटिंग एडिटर है और बी.एड विभाग, एस सी ई आर टी ,दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। शिक्षा से जुड़े समसामयिक मुद्दे पर लिखते रहते हैं। ये लेखक के निजी एवं स्वतंत्र विचार है)