ठहरी हुई सी जिन्दगी

ठहरी हुई सी जिन्दगी !थोड़ा हकीकत,थोड़ा फ़साना 


पिंकी देशराज,शोधार्थी,दर्शनशास्त्र विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय



                              ब्यूरोक्रेसी टाइम्स ग्रुप I दिल्ली 


एम. ए. वालों की परीक्षाएं चल रही थी, परीक्षा समाप्त होते ही कला संकाय के गलियारे में एकदम भोड़ बडक्का सी मच जाती है, चिलमचिल्ली मेरा पेपर तो बहुत ही अच्छा गया यार मुझे तो उम्मीद ही नहीं थी कि पेपर इतनी अच्छा जाएगा, अच्छा मगर यार मेरा तो बिल्कुल ही खराब गया है। भगवान ही मालिक है। हाय पता नहो क्या होगा इसी चिल्लम चिल्ली के बीच में प्रिया कला संकाय के गलियारे से गुजर रही थी और वहां से गुजरते हुए एम.ए. के परोक्षार्थियों की बातें उनके कानों में पड़ रही थी, सारे चेहरे अजनबी से थे गली पास एकदम भरा हुआ था खचाखच। प्रिया गलियारे से आगे जाने की कोशिश कर रही थी और वो भी सोच रही थी जब वो एम.ए. में थी इसी तरह से इन्हीं गलियारों में अपने सभी सहपाठियों के साथ बात करते धक्कम धक्का करते निकलती थी, मेरा पेपर तो बहुत अच्छा गया है। प्रिया के सहपाठी कहते यार नहीं मेरा तो बिल्कुल ही खराब गया है, बुद्धिस्ट फिलॉस्फी का पेपर तो प्रिया का एक दम झकास गया है। बाकी प्रिया के सहपाठियों ने कहा नहीं हमारा तो कुछ खास नहीं गया, कल तो पाली भाषा का पेपर हैप्रिया, प्रिया प्लीज कुछ बता दो पेपर के बारे में यार कुछ हेल्प कर दो पालि के पेपर में प्रिया ने सभी की हेल्प कीपालि के पेपर में क्योंकि प्रिया पालि भाषा को बड़ी सिद्धत से पढ़ती थी इस पूरे बैच में पालि के दो ही विद्यार्थी थे। प्रिया और मंगल कांति। मंगल प्रिया का सहपाठो होने के साथ अच्छा दोस्त भी था, मंगल बुदिस्ट मोन्क था वो चोरव पहने रहता था। दोनों का कम्पीटीशन रहता था। मंगल बुद्धिष्ट मोन्क होने के बाद भी नम्बर कम लाता था, वही प्रिया उससे हमेशा आगे ही रहती थी उसके नम्बर हमेशा ज्यादा ही आते थेपाली भाषा का पेपर सभी का कॉमन ही आता है सभी के अंक अच्छ आए थे और सभी कही ना कही शिफ्ट हो गये थे।


किसी का दिल्ली विश्वविद्यालय में ही पीएच.डी. में एडमिशन हो गया था, प्रिया का भी यही फिलास्फी डिपार्टमेंट में दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएच.डी. में हो गया था। मंगल आज कल कनाडा में चला गया कभी कभी वाट्सएप या फेसबुक पर बाते हो जाती हैकिसी से ज्यादा बाते नहीं होती सभी जल्दी में रहते है पता नहीं कहा जाना है सही मायने में सभी की जिन्दगी ठहरी हुई सी है, मगर किसी को किसी से बात करने की फुसत नही। प्रिया बड़ी मेहनती थी उसे किसी की चापलूसी याबटरिंग नहीं आती थी, मेहनती होने पर भी उसको टोचर्स की उल्टी सोधी बाते सुननी पड़ती। पालि वाली मैडम तो हमेशा प्रिया को ताने से मारती रहती कितने होनहार बच्चे मेरे हिस्से में आए है। कई बार मैडम कहती अगर किसी बच्चे से दुश्मनी निकालनी है तो उसके नम्बर काट लो या फेल कर दो। पता नहीं क्या चोड़ थी प्रिया से मैडम को मगर प्रिया ने भी अपनी कड़ी मेहनत से मजबूर कर दिया था पूरे नम्बर देने के लिए प्वाइंट टू प्वाइंट प्रिया ने इस तरह से पालि का पेपर दिया कि मंगल से ज्यादा नम्बर देने के लिए सुना था प्रिया ने। अगर घर में खीर तो बाहर भी खीर मिलती है, अगर घर से खाली हो तो बाहर भी खाली ही रहोगी।


परीक्षा समाप्त होते ही कला संकाय के बरामदे और गलियारे सने पड़ जाते हैविद्यालय की गहमागहमी खत्म हो जाती है। चारों ओर मौन सा छा जाता है कही कोई इक्का दुक्का चपरासी या क्लर्क किसी काम पर आते जाते नजर आ जाए तो भले ही आ जाए, वातावरण में एक तरह का अवसाद सा भरने लगा था, प्रिया कला संकाय के सुमसान पड़े बरामदे से होते हुए अपनी ही धुन में चली जा रही थी। सुना था उसने अपने सीनियर से कि पीएच.डी. में सुपरवाईजर (प्रोफेसर) इस्तेमाल करते है अगर उनकी बटरिंग नही कि तो। करीब तीन साल पहले प्रिया का एडमिशन पीएच.डी. में हो गया था तब से आज तक प्रिया को इन प्रोफेसरों ने कितना परेशान कर रखा है। पिछले एक साल से प्रिया के पैसे नहीं दे रहे थे, पीएच.डी पुरा नहीं करने देगा, करियर खराब कर देगा जॉब नहीं लेने देगा, मारने पीटने की धमकी रोज रोज देता। एक प्रोफेसर तैयार हो गया, वो भी इस तरह रोज गालियां देता, स्कालरशोप लटका दी थी एक साल से अब तो कोई उम्मीद भी नहीं थी कि मेरी स्कोलरशोप मुझे मिलेगी जॉब की तो बात ही क्या करें।


ठहरी हुई सी जिन्दगी हो गई। यादों की अंधेरी ख्वाबों में पड़े अतीत के चित्रों के अंश, कागज के पूर्जा की तरह कभी कभी उड़ने लगते है, दो-एक पुर्जे जुड़ जाए तो एक तस्वीर सी उभरती जान पड़ती है। खौह का अंधेरा छनता सा जान पड़ता है पर ध्यान से देखने पर चित्र सहसा अपने रंग खोन लगते है अपने अर्थ होने का महत्त्व खोने लगते है, और उम्मीदों के पूर्जे फिर से अलग होकर बिखरने लगते है। यादों की खोह में फिर से डूबने लगते है। प्रिया की कल्पना भी क्या इन अंशों को जोड़ने की, इन्हे रूप देने का प्रयास कर रही है। क्या जीवन की गतिविधि को सूत्रबद्ध करने वाले कोई तंतु हुआ भी करते है या नियमितता की भूखी हमारी कल्पना ही उन्हें कोई सुसंगत रूप देने की चेष्टा करती रहती है? जिन्दगी भर से कुछ एक झरोखे लगता है अपने हाथों से खोल रही हूं।


ठहरी हुई सी जिन्दगी को गति देने की कोशिश कर रही हूंलाईब्रेरी के सामने प्रिया बैठ गयी थी काफी थका सा महसूस कर रही थी, ऐसा लगता है जैसे घना बोझ से दबी जा रही थी वोसाए और आवाजे, भटकते रंग, चारों तरफ विद्यार्थी बैठे थे दिसम्बर का महीना है ठंड भी ज्यादा है आज। मध्यम मध्यम धूप की लुकाछूपी चल रही थी, कुछ विद्यार्थी ग्रुप में बैठे था प्रिया की तरह, ज्यादा तर शोधार्थी ही थे। विश्वविद्यालय का प्रांगण लगभग सुना हो चुका था परीक्षा के बाद अकसर ऐसा ही हो जाता है, साए और आवेजे भटकते रंग काला पोला सफेद लाल इन्ही का झुरमुट सा उभरने लगा था प्रिया की आंखों के आगे दिन की रोशनी में उठनेवाली आवाजे बिखर गई थी अपना अस्तित्व खो देती है, ठहरी हुई सी जिन्दगी लगती है। प्रिया की ठहरी हुई जिन्दगी को कोई खास परिवर्तन नहीं होता दिख रहा था। वो ही सुबह वो ही शाम, वो ही कमरा, वो ही लाइब्रेरी, वो ही डिपार्टमेंट, वो ही लड़ाई, वो ही प्रिया की जिद वो ही अकेलापन, वो ही जमीन, वो ही आसमान, वो ही खाली दिल, ना कोई रिश्ते ना रिश्तेदार, ना दोस्त, अजनबी सी जिन्दगी, ठहरी हुई सी जिन्दगी19 दिसम्बर अलसाई सी सुबह उठने का मन ही नहीं कर रहा था।


बिस्तर से मगर यूं पड़े पड़े भी तो मन भारी हो जाएगा प्रिया लाइब्रेरी के लिए तैयार होती है। लिस्ट देखती है एंडहॉक पैनल की सभी का नाम है मगर उसका नाम नहीं कमाल की बात है। डिपार्टमेंट में ऐसे ऐसे लोग प्रोफेसर बने बैठे है जिनकी क्वालिफिकिशन पूरी नहीं है वो पैनल में (प्रिय का नाम रिजेक्ट करते है जो खुद काबिल नहीं हैलिस्ट देखकर मन बहुत उदास हो गयाठहरी हुई सी जिन्दगी लगने लगती है।


आगे क्या होगा, अगली सुबह कौन सी मुसोबत आएगी शाम तक कितने पहाड़ टूटेंगे प्रिया की जिन्दगी मेंकई बार दिल में सांय सांय जैसी ऑधी तूफान चलने लगते। पीएच.डी. करके भी क्या कोई नोकरी नहीं मिलेगी चारों तरफ झूठ और फरेब का नंगा नाच चल रहा थाचारों तरफ धरने प्रदर्शन चल रहे (जेएनयू) जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सभी विद्यार्थी सड़कों पर थे पुलिस द्वारा लाठी चार्ज हो रहा था सड़को पर लड़कियों के कपड़े फाडे जा रहे थे हवालियत नंगा नाच रही थी। इधर जामिया के छात्रों को मारा जा रहा था, दो छात्रों को तो मौत के घाट ही उतार दिया गया, लाईब्रेरी में बैठे पढ़ते हुए विद्यार्थी की पिटाई की जा रही थी। हिंसा तुल पकड़ती जा रही थीसड़के जाम, डी.टी.सी. बसों को जला दिया जा रहा थादिल्ली विश्वविद्याय में दंगे भड़क रहे थे, कौन है ये दंगाई, क्या इनको मरने से डर नहीं लगता? क्यू मारते है?


किसी को हैदराबाद काण्ड, इधर निर्भयाकांड, उन्नाव कांड, मुज्जफरनगर कांड, आए दिन बच्चीयों के साथ दरिन्दगी आत्मा सिहर उठती है, डर नशों में समा गया था, इधर स्वातीमालोवाल का राजघाट पर आमरण धरना, क्या कोई जवाब है किसी के पास? जिसको देखो बस आग उगलने को तैयार है। जैसे सभी आग खाने लगे है, ठहरी हुई सी जिन्दगी कुछ नया क्यू नहीं होता। चेहरा से अंगारे से क्यू है कोई चेहरा फल सा क्यू नहीं? प्रिया ने कई दिनों से किसी से बात भी नहीं की थी करती भी किससे? कोई था ही नही जिससे बात करे। सोचा आज अपनी मम्मी से बात करती हूँ बहुत दिनों से बात नहीं हुई, उसकी तो किसी को चिन्ता ही नहीं शायद वो ही गलत है। फोन किया तो पता नहीं किसी व्यक्ति ने उठाया, दोबारा किया तो किसी औरत ने उठाया, ऐसा कई बार हुई। सिर्फ फोन ही तो एक जरिया था मम्मी से बात करने का शायद मम्मी जरूरी नहीं समझती बात करना, या फोन करना उसको अच्छा नहीं लगता दस साल से प्रिया अपनी मम्मी से दूर थी कभी हॉस्टल में, कभी कहीं और घर छोड़े दस साल हो गये थेमम्मी जरूरी नहीं समझती शायद मुझसे बात करना, या फिर अपनी शान के खिलाफ समझती वो भोली है या नादान, नही पता इतने सारे हादसों के बाद तो कोई भी चालाक बन जाता है। मगर वो वैसो की वैसी ही है कई बार चिन्ता सी होने लगती है मम्मी ही बच्ची से लगती है वो प्रिया खुद को बड़ी महसूस करती है जैसे दस बेटियों की मां हो, कभी प्रिया की मम्मी ने उसे फोन नहीं किया, वो ही करती थी मम्मी को फोन करना प्रिया के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, मक्का मदिना सब कुछ मम्मी। अगर फोन ना उठाए तो बस कयामत आ जाती मगर मम्मी कितनी बेखबर थी इन सब से एक बार प्रिया अपनी मम्मी के साथ कही जा रही थी आगे प्रिया पोछे मम्मी बारिश के कारण रास्ते जाम थे।


पानी भरा हुआ था सभी जगह कदम सभालकर चल रहे थे, तभी एक आदमी बाईक पर आकर उनके सामने रूका और बोला कहा जाना है आपको। चलो मेरी बाईक पे प्रिया ने कहा, नहीं अंकल कही नहीं जाना हमें। वो आदमी बोला बेटा मैं आपको नहीं कह रहा, मैं उनको बोल रहा हूँ, प्रिया ने कहा उन्हें भी नहीं जाना कहीं, वो मेरे साथ है, कहन का आशय यह है कि माँ बेटी को समाज बदाश्त नहीं कर सकता। बड़ा डर सा लग रहा है। अकेली रहने वाली मां कैसे रहती होगी वो अकेली, आत्मा सिहर उठता है, एक नादान बच्चे की तरह उसका ध्यान रखना पड़ता है, कैसा है ये समाज बिना पुरुष क स्त्री की कोई इज्जत सम्मान नहीं।


लपकने की ताक लगाऐ गिरगिट बैठे रहते है। सुबह होते होते दिल टूटने लगता है, कई खौफनाख चेहरे सामने आने लगते है मन के पटल पर अनेक आकृतियां उभरने लगती है। कितनी भयानक रूप लिये है, ये जिन्दगी, क्या लिखू या ना लिखूसमझ नहीं आ रहा, लोग आत्मकथा लिखते है क्या वो सही में वो सब लिखने की हिम्मत रखते जो उनके साथ घटता है मुझे तो नहीं लगताक्या लोग आत्मकथा के साथ नाइसाफो नहीं करते, वहीं सब लिखने की हिम्मत है, जो रियल में होता, मुझे तो शब्दों का चुनाव करना पड़ेगा सभ्य सुन्दर शब्दों का, प्रिया सोच रही थी। इतनी गंदी भरी जिंदगी को लिखने के लिए शब्दों का चुनाव।


प्रिया रोज ही अपने डिपार्टमेंट जाती है। सभी प्रोफेसर उसे होन भावना से देखते, या खौफ खाते है पता नहीं चला। प्रिया के जाने के बाद एक दूसरे स बाते मिलाने है, चुगली करते है। औरते भी और आदमी भी, कुछ तो भाग खड़े है। प्रोफेसर से धमकी रोज मिलना गाली गलौच करन, कई और तरह की बाते बनाना। शायद प्रिया का ये खौफ था। अच्छा भी था। पीएच.डी. करने वाले शोधार्थियों को प्रोफेसरों की गुलामी तो करनी ही पड़ती है मगर प्रिया ने नहीं कि, किसी प्रकार का दवाब प्रोफेसर से नहीं सहा था।


लड़कों से सब्जी, आटा, दाल, चावल, मछली, मांस घर का सामान मंगवाते थे और लड़कियों को शो पीस समझ कर उनको रात में पार्टियां, हॉटलो में ले जाते है यही है विश्वविद्यालयों का कड़वा सच, यूज करते है लड़कियों का, कपड़े तक उतरवा देते है। मगर प्रिया ने अपने बल बूते पर पीएच. डी. में घूसी थी, नहीं करनी किसी प्रोफेसर की चाटुकारिता, क्या जरूरत है किसी प्रोफसर के साथ रात में घूमने की, उसको खुश करने की। नहीं की थी प्रिया ने इस तरह की कोई हरकत।


तभी तो चौड़ा हो कर बोल रहा था, नहीं करवाऊँगी इसकी पीएच.डी. काला कलूटा, बंगन लूटा, अजीब सी गंदी बदबू वाला प्रोफेसर, प्रिया पे


चढ़ चढ़ के आ रहा था, थप्पड़ मारने को दाड़ दौड कर चढ़ा आ रहा था, आँखे निकाल कर राक्षस कि तरह मूंछे, विशालकाय धारण किये, अजीब सा दिखने वाला मनुष्य रूप धरे, वह भेडियां।


प्रिया ने भी बोल दिया था हाथ तो लगा क देख एक थप्पड़ के बदले दस मारूँगी ये नौबत आ गई थी प्रिया की पीएच.डी. का कारण केवल एक.... 20 दिसंबर आज तक एक साल से प्रिया की स्कोलरशीप पर साइन नहीं किये थे उस मुच्छड़ नाग ने। प्रिया की पीएच.डी. पर इच्छाधारी नाग की तरह कुण्डली मार कर बैठा हैं मगर प्रिया भी अजीब जिद्दी है। ठहरी हुई सी जिन्दगी को गति देने की जद्दोजहद में प्रिया।


शुक्रवार का दिन थां जाड़ों के दिनं गुनगुनी मीठी-मीठी धूप कैम्पस में पसरी हुई थी, शुक्रवार का दिन चढते ही दिनचर्या की सभी गांठे ढीली पड़ जाती हैं हर काम अलसाया अलसाया सा चलने लगता है, मगर प्रिया के डिपार्टमेंट में अकसर शुक्रवार को सेमिनार रहता ही है प्रिया देर तक अखबार देखती रही, फिर लाइब्रेरी के बाहर धूप में बैठी यादों के झराखे में झांकती रही, वो बचपन के दिन प्रिया सोकर उठी तो एक शार के साथ गली में कुछ आवाजे हो रही थी, प्रिया आंखे मलती हुई बाहर आई तो पता चला ठकुराईन की लौडियां भाग गई इसलिए गली में शोर मच रहा था, मगर ये प्रिया के पापा क्यू चिल्ला-चिल्ला के हिस्सा ले रहे थे।


बढ़ चढकर। मह काला करवाती है ये लड़कियां। पैदा होते ही मार देनी चाहिये ऐसी लाड़ियां को तो प्रिया अपने पापा के मुंह को देखती ही रह गई, क्या ऐसा भी पिता होता, कुछ दिनों बाद खटिकनी की लौडियां भाग गई थी, दोनों के घर आमने सामने ही थे प्रिया का घर काफी दूर था मगर फिर भी प्रिया के पापा और दादा बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रह थे, ऐसी लड़कियां को तो चौंक पे खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए मेरी लाड़िया होती तो मार देता गोली से। अरे बाप रे।


प्रिया सुन कर सहम गई अगर मैं भाग गई तो मेरे पापा गोली से मार देगें, मगर भागने की जरूरत ही क्या है। बस में या ऑटो, रेल से जाऊंगी, मैं क्यू भागूंगी प्रिया ने सोचा प्रिया को भागने का मतलब भी नहीं पता था किसे कहते है। भागना, बाद में पता चला कि लड़के के साथ माँ बाप की मर्जी के बिना उन्होंने शादी कर ली थी अपने मर्जी के लड़के के साथ। प्रिया ने सोचा, फिर क्या तो अच्छा ही हुआ, मर्जी से शादी करने को ही भागना कहते हैतो मैं भी भाग जाऊंगी, मगर किसके साथ, क्या किसी के साथ भागना जरूरी होता है।


मैं तो अकेले ही भागूंगी फिर देखती हूँ, कैसे मारेगे गोली से प्रिया ने अपने मन में सोचा। आने दे उन दोनों दीदीयों से पूछूगी कि क्यू गली मौहल्ले को बदनाम किया है भाग कर, आराम से नहीं जा सकती थी, कभी तो मिलेगी वो दोनों मझेप्रियां अपनी घर की छत पे खड़ी थी तभी गली में कुछ शोर की आवाज आई लगभग एक साल बाद ठकुराई की लौड़ियां को देखा कुछ बदली बदली सी लग रही थी, गोद में एक बच्चा किसका ले रखा है इस हरामखोर ने। रात में आई होगी देखों कैसी बैठी है आराम से गली में शर्म भी नहीं आती प्रिया बुड़बुराने लगी। अभी बतातो हूं इस हराम खोर को क्यूं भाग गई थी, गली का नाम भी गंदा किया, प्रिया जल्दी-जल्दी नीचे आई गली में जाकर उससे बोली क्यूं री, क्यूं भागी थी, तू, समझती क्या है? अपने आपको? भागने की क्या जरूरत थी आराम से नहीं जा सकती थी, नाक कटाती फिरती है।


वो प्रिया को देखने लगी और मुस्कुराने लगी, क्या बोल रही है पगली देख ये मेरा बेटा है अभी पंद्रह दिन का है इतनी छोटा बच्चा प्रिया ने कभी नहीं देखा था, मैं क्यूं देखमुझे तू ये बता भागी क्यूँ थी मुझे जवाब दे? अच्छा हुआ मेरे पापा ने तुझे देखा नहीं वरना बोल रह थे, तुझे गोली मार देगें, अच्छा, ठकुराईन को लाडियां ने कहा, तु इतनी सी है पहले तो दीदी बोलती थो, अब कैसी भाषा बोल रही है त। मेरी दीदी हो ही नही सकती ऐसी बदलचन लौडियां मेरी कोई नहीं प्रिया ने कहा, अच्छा ठीक जो तेरी बातों का जवाब दे दूगी तो क्या, तु मुझे माफ कर देगी, नहीं कभी नहीं करूँगी माफ प्रिया ने कहाँ।


अच्छा तूझमें इतनी हिम्मत है कि सच्चाई को सुन सके, अगर हिम्मत है तो मैं तुझे सारी बाते सच बताऊँगी, प्रिया ने कहा हाँ है हिम्मत बोल। ठकुराईन की लैंडियां ने कहा हर रात उसकी कैसे गुजरती थी उसकी वो ही जानती है, उसका बाप उसे रात में तंग करता था, छेड़ता था उसकी खाट पर लेट जाता था और सुनना चाहती हैसलवार का नाड़ा तोड़ता था, और सुनना है, प्रिया बर्फ की तरह जाम हो गई सुन पड़ गई प्रिया की नसे फटने को हो गई थी ठहर सी गई थी जिन्दगी। कुछ दिनों बाद खटिकनी की लौडियां भी वापस आ गई थी साथ में उसका पति भी था, जिसके साथ वो भागी थी उसके आने पे भी हंगामा हुआ, उससे भी प्रिया ने यही पूछा था क्यू भागी थी, उसका जबाव भी वैसा ही था इस पर प्रिया के पापा ने कितना हंगामा किया था, बोले ये गली में घूसी कैसे। सारी गली इक्कठी हो गई थी, उसके पापा कुछ ज्यादा ही चिल्ला रहे थे, प्रिया ने पहली बार इतनी जोर से चिल्लाया। बस। दूसरा इस बात पर बात भी मत करना, वरना, वरना। आपका सिर फोड दूंगी प्रिया ने अपने पापा से कहा, पूरी गली शांत हो गई।


लोग अपने अपने रास्ते चलते बने प्रिया के पापा भी अपने घर आ गये प्रिया अपने पापा को घूर घूर कर देख रही थी मगर वो प्रिया से आंखे नहीं मिला पा रहे थे उसका रास्ता काट रहे थे बच बच के निकल रहे थे। समय का पंछी पंख लगा के उड़ा जा रहा था दिल्ली विश्विविद्यालय की लाइब्रेरी के बाहर प्रिया आई तो देखा इतनी भीड़ की भीड़ एक दूसरे के मार पोट रहे थे इतनी पुलिस, पत्थरबाजी हो रही थी। ऐसा लग रहा था मानो सीमा पर बम बारी हो रही हो।


जिनके हाथों में लैपटॉप किताबे होनी चाहिये उनके हाथों में पत्थर क्यूं आ गये ये कौन सो दुनिया है लाइब्रेरी के सामने हिंसा को देख प्रिया सहम गई अखबार को पढ़ा तो कई जगह पत्थराव, पुलिस द्वारा लाठी चार्ज आंसू गैस, पानी का छिड़काव, गोली तक चलाने की खबरों से अखबार भरा पड़ा था। बेरोजगारी, महगाई ने लोगों की कमर तोड़ दो थी लोगों की नौकरियां दांव में लगी थी।


पीएच.डी. के शोधार्थी पकौड़े बेच रहे थे, कई लोगों को मारा जा चुका था, कई पदर्शन चला रहे, प्रदर्शन करने वालों को पुलिस गिरफ्तार कर रही थी ऐसा चारों तरफ हाहाकार मचा था लहूलुहान शरीर आत्मा लहूलुहान शोधाथी, विद्यार्थी इतनी ठंड में कपड़े उतार कर प्रदर्शन कर रहे थे, नंगे बदन पर पुलिस कि लाठियों की बारिस हो रही थी देश के नौजवान सड़कों पर थे नौजवान लड़कियां, नौजवान लड़के ये पढ़ना चाहते थे ये रोजगार चाहते थे ये जीना चाहते थे, ठहरी हुए सी जिन्दगी लहू से नहा रही थी। ये सब प्रिया अपनी आंखों से देख रही थी।


जीवन में कभी ऐसी बाते अवश्य ही कट जाती है और उन्हें नाटकीय कहने का एक ही अर्थ हो सकता है कि जीवन भी एक नाटक ही है। जीवन को नाटक कौन कह सकता है? एक उत्तर जल्दी से जल्दी दिया जा सकता है कि दलित व्यक्ति जीवन को नाटक नहीं कह सकता जीवन को नाटक कहने में चालाकी ज्यादा झलकती है।


जीवन नाटक उसी व्यक्ति के लिए कहा जा सकता है जिस का काम चलाकियों से चल रहा हैजो कमा कर खाते है उन लोगों के लिए जीवन एक वास्तविकता और सच्चाई है। निशाने पर थे देश के विश्वविद्यालय देश के होनहार नौजवान, लड़के, लड़कियां कहानियां चारों तरफ फैली पड़ी थी, आदमी कहानीयाँ लिखता है या, कहानियां आदमी को लिखती है पता नहीं, कई सवाल मन के पटल पर उभर जाते है, मैं कहानी लिख रही हूँ या कहानी मुझे लिख रही है।


आँखें नम हो चली जाती है ठहर सी जाती है ये जिन्दगी, फिर चली ही जा रही है जिन्दगीयादों के झरोखे ना चाहने पर भी झांकने लगते है मौहल्ले की औरते बैठी चुगलियां कर रही थी मुन्ना का और भूरे बाल वाले के लौंडे के साथ चक्कर चल रहा छत से दोनों के इशारे चलते रहते है, अरी हाँ, इसके लक्षण कुछ ठीक नहीं है, सुना है कॉलेज में पढ़ती है, हाँ हाँ कालेज में ही पढ़ती है। कौन सा कॉलेज, अरी ये ही शाहदरा वाला शाम लाल कॉलेज ना है, अरी वा में तो गुजर के लौंडे पढ़ रहे है, अरी बहना यूं जमाना बड़ो खराब है गो है, कहा जरूरत है यहां कू कॉलिज फोजिल भेजनण की। देख ली जो एक दिन गुल खिला देगी यूं तो प्रिया की मम्मी भी उनकी इस संसद की मिटिंग की मेम्बर थी।


प्रिया के छोटे से दिमाग में भी आया, अच्छा कालेज में जा के लड़कियां बिगड़ जाती है, तो मैं भी कभी नही जाऊंगी कॉलिज, स्कूल में भी नही जाया करूँगी, ना रहेगा बाँस ना बजेगी बाँसरी। यादों के सफर से प्रिया बाहर निकली तो सामने विवेकानंदन की मूर्ति के पास खड़ी होकर एक लड़की माइक में जोर जोर से बोल रही थी, सैकड़ो हजारों लाखों बच्चे, शोधार्थी पुलिस खड़ी थी, वो कह रही थी।


यूनिवसीटी" हमारी आप को नहीं किसी के बाप की, हम ले के रहेगे आजादी, हम कह लेंगे आजादी, ओ बिरसा वाली आजादी, और फूले वाली आजादी, वो अम्बेडकर वाली आजादी, हम लेके रहेगे आजादी, जहन में कितने ही सवाल हलचल मचाने लगे, पूरे कैम्पस में इन्कलाबों इनकलबों, जिन्दाबाद हमारी एकता जिन्दाबाद, आवाज दो के हम शौक नारो से गुंज गया था।


ये विश्वविद्यालय था, हाँ यहाँ चारों तरफ नौजवान लड़के थे लड़कियाँ थी, मगर कोई किसी को लेकर नहीं भाग रहा था इन सभी की शादी की उम्र हो चुकी थी मगर आजादी के इतने साल बाद भी इनके हाथों में मशाले है जिन्दगी आग में झुलसी पड़ी है। प्रिया का लगभग रोज का रुटिन था कि लाइब्रेरी में जाए, अखबार पढ़ा तो वही, हाहाकार लाल किले से कितने लोगों को गिरफ्तारी, डी. यू. में गिरफ्तारी, जे.एन.यू. में गिरफ्तारी, सीलमपुर में गिरफ्तारी, पूरे देश में लहू की गंगा बह रही थी, अखबार पढ़ कर मन व्याकुल हो उठाभैया क्या मार्किट में जाकर देखा जाए।


प्रिया कमला नगर की मार्किट में दखती है जाकर शायद उसका, मन कहो तो शांत हो जाए कल शाम को भी वो मार्किट गई थी। कुछ चमकती धमकती चोजे प्रिया को अच्छी लगती है कल दो दुपट्टे खरीद लाई सच तो प्रिया को उनकी कोई जरूरत भी नहीं थी बस अच्छे लगे तीन पर्स खरीद लाई, मार्केट में प्रिया का मन चंचल हो जाता है।


हर चोजों को लपकती सैण्डल, चुडियाँ, नेकलस, लँहगा, सूट, दुपट्टे कानों के झुमके, प्रिया जिन्स पहनती है मगर ना जाने क्य् मन मचलने लगा कई जोड़ी झुमके यूं ही उठा लाई थी प्रिया हार कितना सुन्दर है ये लंहगा, चोली, ओ भाई गोड हर कपड़े के दुपट्टे को, पर्स को चोलियों चुलियों को प्रिया बार-बार छू के देखती रहती कितनी सुन्दर है, ये प्रिया किसी तरह अपने मन को शांत करने के लिए एक ऐसा प्रयास कर रही थी जो प्रयास असफल रह जाता है। वो चाह कर भी अपने इस प्रयास में सफल नहीं हो पाई थी। ठहरी हुई सी जिन्दगी फिर भो दौड़ रही थीमार्किट से आते-आते प्रिया अपने असफलता पर रो पड़ी थी, उसके जहन में कुछ बह निकला था, जवान लड़के, लड़कियां मौत के घाट उतारे जा रहे थे।


क्यूँ आखिर क्यूं, ये भाग नहीं जाते, क्यूँ ना ये अपनी माता पिता की नाक कटवाते, ये भागते क्यूँ नहीं, कितना खुलापन है। यहां कोई रोकने वाला भी नहीं, ना मां ना पिता फिर भागते क्यूँ नहीं, काश के ये इश्क में पड़ जाते किसी लड़के के किसी लड़की के। प्रिया न कितनी ही दुकानों शोरुम में देखा था लंहगा चुनियों को, सुर्ख लाल रंग लिए हुए शेरवानी एक से बढकर एक। सब दुकाने सूनी सूनी, क्योंकि मांग तो कफन की बढ़ रही थी। ठहर सी गई थी जिन्दगी।


एक खामोशी चारों तरफ बिखरी पड़ी थी।


वादियाँ लहू से सूर्ख हुई है।


और खामोश है लोग,


यूं तो बाजार में लंहगा भी है,


और सेहरा भी है यूं तो बाजार में लंहगा भी है शेरवानी भी है कफन की मांग बढ़ी है।


और खामोश है लोग। 


(लेखिका के अपने निजी एवं स्वतंत्र विचार है)